Atmadharma magazine - Ank 363
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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: पोष : रप०० आत्मधर्म : ९ :
वीर तीर्थंकरे बतावेली आत्मशक्ति
अनेकान्तस्वरूपे स्वयमेव प्रकाशतो अनंतधर्मस्वरूप ज्ञानमात्र आत्मा.
वाह! जिनवाणीनी अद्भुत शोभा! ते जिनवाणीनो अमने विरह नथी.
अहो, आ समयसार वगेरे परमागम छे ते
भगवाननी वाणी छे; आ समयसारना भाव जे
समज्यो तेने तीर्थंकरनी वाणीनो विरह नथी;
तीर्थंकरदेवे वाणीमां जे कह्युं तेनो सार आ
समयसारमां भर्यो छे. ने आवुं समयसार आ
परमागममंदिरमां कोतराई गयुं छे. वाह! जिनवाणी
जेमां वसे–एनी शोभानी शी वात! अने ए
जिनवाणीना साररूप शुद्धात्मा जेणे स्वसंवेदनवडे
पोताना आत्मामां कोतरी लीधो ते जीव न्याल थई
गयो. एवा जीवनी स्वानुभूतिमां केवी अद्भुत
आत्मशक्तिओ उल्लसे छे–तेनुं आ वर्णन छे.

ज्ञानमात्र भाव आत्मा ज्ञानक्रियारूपे परिणमे छे तेमां तेना अनंतधर्मोनुं
परिणमन भेगुं ज छे,–तेथी आत्माने ज्ञानमात्रपणुं कहेवा छतां तेमां अनेकांत
निर्बाधपणे प्रकाशे छे. ज्ञानमात्र भाव पोते अनंत धर्मस्वरूप छे, ते धर्मोनुं वर्णन अहीं
आचार्यदेव अद्भुत–अलौकिक रीते करवा मांगे छे; तेमां अनंतधर्मोमांथी अहीं ४७
शक्तिओ वर्णवी छे. तेमां सौथी पहेली ‘जीवत्वशक्ति’ छे.
चैतन्यजीवन जीववुं ते ज मोक्षना महोत्सवनी साची उजवणी छे
जीवत्त्वशक्तिथी आत्मा सदा जीवंत छे...कई रीते जीवे छे? चैतन्यप्राणथी सदा
जीवे छे. अन्नथी के शरीरथी ते नथी जीवतो, रागथी पण नथी जीवतो, ए बधा छूटी
जवा छतां चैतन्यप्राणथी जीव स्वयं जीवे छे; एवी जीवत्वशक्ति ज्ञानभावमां साथे ज
वर्ते छे.