Atmadharma magazine - Ank 363
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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: पोष : रप०० आत्मधर्म : ११ :
साथे एकता रही नहीं पण तेनाथी भिन्न चैतन्यभावरूप ते थई गई.–आवुं जीवन ते
धर्मीनुं जीवन छे. चोथा गुणस्थानवाळा धर्मात्माथी शरू करीने सिद्ध परमात्मा सुधी
बधाय जीवो आवुं जीवन जीवे छे.
–आवी जीवत्वशक्तिवाळो आत्मा ज्ञानलक्षणथी लक्षित छे.
जीवत्वशक्तिवाळा आत्मानो ज्यां स्वीकार छे त्यां साचुं जीवन छे.
ज्यां आवा आत्मानो स्वीकार नथी त्यां साचुं जीवन पण नथी.
* कारणस्वभावनो ज्यां स्वीकार छे त्यां सम्यक्त्वादि कार्य पण विद्यमान छे ज.
* ज्यां कारणस्वभावनो स्वीकार नथी त्यां कार्य पण होतुं नथी.
* कोई कहे के अमारामां कारण छे पण सम्यक्त्वादी कार्य हजी थयुं नथी,–तो तेणे
कारणनो पण साचो स्वीकार कर्यो नथी.
* जेने पर्यायमां सम्यक्त्वादि थयुं छे तेने कारण पण सदाय नीकट ज वर्ते छे, तेने
कारण जराय दूर नथी, कारणनो कदी विरह नथी.
ज्ञानमात्र आत्मभावमां कारण ने कार्य, शक्ति ने व्यक्ति, अस्ति ने नास्ति
वगेरे अनंत धर्मो एक साथे समाय छे.
परमात्माना घरे? पुत्रना अवतारथी समस्त गुण–परिवारने आनंद
ज्ञानलक्षणवडे आत्माने रागथी भिन्न करीने, ज्ञानभावना अनुभवरूप
परिणमन थयुं, त्यारे ते ज्ञानचेतनामां व्यापनारी आत्मानी अनंतशक्तिमांथी दरेक
शक्ति द्रव्य–गुण–पर्याय त्रणेमां शुद्धपणे व्यापनारी छे.
राग कांई द्रव्य–गुण–पर्याय त्रणेमां व्यापी शकतो नथी, ज्ञानादि
स्वभावगुणोमां ज द्रव्य–गुण–पर्याय त्रणेमां तन्मय थईने रहेवानी शक्ति छे, ने एवी
शक्तिनुं परिणमन थतां रागादि भावो तेमांथी बहार रही जाय छे, ज्ञानपरिणमनमां
राग प्रवेश करी शकतो नथी, पण अनंतगुणनो निर्मळस्वाद तेमां समाई जाय छे. ते
ज्ञानक्रियामां तेना कर्ता–करण वगेरे छ कारको पण समाई जाय छे, ते छए कारको
ज्ञानमय छे, कोई कारक ज्ञानथी भिन्न के रागमय नथी. अहा, चैतन्यपरिणाम ते तो
परमात्मानो पुत्र छे; परमात्माना घरे शुद्धपर्यायरूपी पुत्र थतां तेनो समस्त गुण–
परिवार आनंदित थाय छे, समस्त गुणसमाजरूप कुटुंब–परिवारमां आनंद–आनंद
व्यापी जाय छे. द्रव्य–गुण–