निजगुणनी रचना निजवीर्य शक्तिथी आत्मा पोते करे छे, तेमां वच्चे रागनी के बीजा
कोई निमित्तनी जरूर नथी. आवा आत्मानी प्रतीतवडे पंचपरमेष्ठी जेवुं सुख धर्मी
पोतामां अनुभवे छे. अरे, आवा चैतन्यतत्त्वना मंथनमां शांतिना तरंग पण कोई
जुदी जातना होय छे. एना अनुभवना आनंदनुं तो शुं कहेवुं?
ते कोतराई गई छे; अने हे जीव! तुं पण तारा अंतरमां भावश्रुतमां ते कोतरी ले! तो
तने तेनो अगाध महिमा समजाशे. अनंत शक्तिनुं मंदिर आ आत्मा पोते छे. तेनो
जेणे अनुभव कर्यो तेणे समस्त श्रुतज्ञान–परमागमनो सार आत्मामां टंकोत्कीर्ण करी
लीधो, अनंत शक्ति तेना आत्मामां कोतराई गई. अनंत शक्तिवडे तेणे पोताना
आत्माने शणगार्यो...शोभाव्यो...चैतन्यनी परम वीरता ने प्रभुता तेणे प्रगटावी.
ज्ञान–सुख–वीर्य बधी आत्मशक्तिओ एक साथे निर्मळभावपणे उल्लसे छे. आवो
स्वभाव प्रतीतमां आवतां ज अनंतगुणोमां निर्मळ परिणमन शरू थई जाय छे. ते
परिणमनमां राग न समाय. आवा शुद्ध गुणो ने पर्यायो ते बेमां ज्ञानस्वरूप आत्मा
रहेलो छे. धर्मीनी पर्यायमां चैतन्यना अनंत खजाना खुल्ली गया छे; अनंत शक्तिओ
तेनी पर्यायमां कोतराई गई छे. शब्दोथी लखवामां अनंत शक्तिओ न आवी शके,
अंतरना वेदनमां अनंतशक्तिनो स्वाद आवी जाय छे.
स्वसंवेदनमां आव्युं छे.