बताव्या छे. अहीं समयसारना परिशिष्टमां ज्ञान साथेनी ४७ शक्तिना परिणमननुं
वर्णन छे–एमां अशुद्धता न आवे, एमां तो ज्ञान साथे वर्तती शुद्धता ज आवे.
चैतन्यत्व जाग्युं ने पोताना स्वभावरूप परिणम्युं तेमां अपार प्रभुता खीली नीकळी
छे...द्रव्यस्वभावमां प्रभुता तो बधा जीवोमां छे, अहीं तो ते प्रभुता पर्यायरूप परिणमी
तेनी वात छे. धर्मीनी पर्यायमां कर्मनी प्रभुता चालती नथी, धर्मीनो आत्मा पोते
प्रतापवंत स्वतंत्रतारूपी प्रभुता वडे शोभी रह्यो छे, तेनो प्रताप के तेनी शोभा कोईथी
हणी शकाय नहीं. अहा, चैतन्यप्रभुनी ताकातनी शी वात? एना प्रतापनी, एनी
शोभानी शी वात? चैतन्यनी प्रभुतामां राग–विकल्पो केवा? चैतन्यनी अखंड
शोभामां रागनुं कलंक केवुं? चैतन्यप्रभु स्वपर्यायमां स्वाधीनपणे शोभे छे, तेनी शोभा
माटे कोईनी पराधीनता नथी. स्वाधीनपणे शुद्धतारूपे पोते प्रभु थईने परिणमे छे. ते
परिणमनमां कर्म साथे संबंधनो अभाव छे. अहो, आवी प्रभुताना संस्कार आत्मामां
नाखतां एकवार तारी प्रभुता खीली नीकळशे. प्रभुत्वशक्ति जीवमां पारिणामिकभावे
त्रिकाळ छे–सहज स्वभावरूप छे. तेनो स्वीकार करनारने पर्यायमां तेनुं व्यक्त
परिणमन थवा मांडे छे एटले क्षायिकादिभावरूप प्रभुता प्रगटे छे. आम गुण–पर्यायनी
अलौकिक संधि छे. गुणनो स्वीकार करीने परिणमे, अने गुण जेवी शुद्ध पर्याय न थाय–
एम बने नहीं. स्वभावना भरोसे एनी पर्यायनुं वहाण तरवा मांड्युं. तेनुं चैतन्यतेज
खीलवा मांड्युं...तेना चैतन्य–तेजनी प्रभुता सामे कोई जोई शके नहि, तेना प्रतापने
कोई हणी शके नहीं.
आवी प्रभुताना संस्कार पर्यायमां पाड, तो अनादिना कषायना संस्कार तारी
पर्यायमांथी छूटी जशे. तारी पर्यायमां प्रभुतानो मोटो दरियो अनंत गुणथी भरियो छे,
ते स्वाधीनपणे शोभे छे.