श्रद्धा–ज्ञानमां लीधो छे; परमात्माना घरमां ते प्रवेशी चुक्यो छे.–एना परमात्मस्वभाव
पासे रागनी ते शी किंमत छे? ‘सर्वज्ञस्वभाव’ मां रागनी सर्वथा नास्ति छे. एटले
आवो सर्वज्ञस्वभाव जेने पोताना अंतरमां बेठो ते जीव रागथी छूट्यो–भवथी छूट्यो,
मोक्ष तरफ चाल्यो...एनी परिणतिनो प्रवाह सर्वज्ञता तरफ चाल्यो.
एक जीव सातहाथनो होय ने केवळज्ञान पामे;
एक जीव सवापांचसो धनुषनो होय ने केवळज्ञान पामे;
बंने जीवनुं केवळज्ञान–सामर्थ्य सरखुं ज छे. आवो केवळज्ञानस्वभाव ते
अक्षरे) कोतराई गई छे, ने अंदर ज्ञानीना ज्ञानमां अनंती आत्मशक्तिओ कोतराई
गई छे. शब्दोनी कोतरणीमां अनंत शक्ति न समाय, पण स्वसंवेदन ज्ञानना
अनुभवमां अनंत शक्तिनो स्वाद एकसाथे समाय छे.
विकसवा मांड्युं, तेमां हवे संकोच नहि थाय. संकोच वगरनो विकास थाय एवो
आत्मानो स्वभाव होवाथी, आत्माना बधाय गुणोमां संकोच वगरनुं परिणमन थाय
छे.–आवुं परिणमन क््यारे थाय?–के ज्यारथी चैतन्यतत्त्वने प्रतीतमां लीधुं त्यारथी ज
आवुं परिणमन शरू थाय छे.