Atmadharma magazine - Ank 363
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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: १६ : आत्मधर्म : पोष : रप००
सर्वज्ञपरिणतिरूपे परिणमवाना स्वभाववाळो आत्मा छे. आवा आत्माने धर्मीजीवे
श्रद्धा–ज्ञानमां लीधो छे; परमात्माना घरमां ते प्रवेशी चुक्यो छे.–एना परमात्मस्वभाव
पासे रागनी ते शी किंमत छे? ‘सर्वज्ञस्वभाव’ मां रागनी सर्वथा नास्ति छे. एटले
आवो सर्वज्ञस्वभाव जेने पोताना अंतरमां बेठो ते जीव रागथी छूट्यो–भवथी छूट्यो,
मोक्ष तरफ चाल्यो...एनी परिणतिनो प्रवाह सर्वज्ञता तरफ चाल्यो.
अहा, अगाध चैतन्यताकातनी शी वात!
एक जीव सातहाथनो होय ने केवळज्ञान पामे;
एक जीव सवापांचसो धनुषनो होय ने केवळज्ञान पामे;
बंने जीवनुं केवळज्ञान–सामर्थ्य सरखुं ज छे. आवो केवळज्ञानस्वभाव ते
विकल्पनो विषय नथी, ए तो स्वसंवेदनज्ञाननो विषय छे.
* सोनेरी शक्तिओ * ज्ञानशक्तिमां केवळज्ञाननी कोतरणी *
अहा, ज्ञाननी ऊंडपनो कोई पार नथी. ए ज्ञानशक्तिमां आ केवळज्ञाननी
कोतरणी चाले छे. बहारमां परमागममंदिरना आरसमां आ आत्मशक्तिओ (सोनेरी
अक्षरे) कोतराई गई छे, ने अंदर ज्ञानीना ज्ञानमां अनंती आत्मशक्तिओ कोतराई
गई छे. शब्दोनी कोतरणीमां अनंत शक्ति न समाय, पण स्वसंवेदन ज्ञानना
अनुभवमां अनंत शक्तिनो स्वाद एकसाथे समाय छे.
ज्ञानलक्षणथी ज्यां अनंतधर्मस्वरूप आत्माने अनुभवमां लीधो त्यां धर्मीने
निजानंदनो विकास थवा मांड्यो, चैतन्यतत्त्व पोताना अनंतगुणनी निर्मळपर्यायमां
विकसवा मांड्युं, तेमां हवे संकोच नहि थाय. संकोच वगरनो विकास थाय एवो
आत्मानो स्वभाव होवाथी, आत्माना बधाय गुणोमां संकोच वगरनुं परिणमन थाय
छे.–आवुं परिणमन क््यारे थाय?–के ज्यारथी चैतन्यतत्त्वने प्रतीतमां लीधुं त्यारथी ज
आवुं परिणमन शरू थाय छे.
* केवळज्ञान कदी करमाय नहीं *
चैतन्यलक्ष्मीनो विकास प्रगट्यो ते फरीने कदी संकोचाय नहीं, केमके ते
स्वाभाविक विकास छे; बहारमां लक्ष्मी वगेरेनो तो विकास थाय ने पाछी हानि पण