(१०) अयोगीपणुं होय त्यां केवळज्ञान नियमथी होय ज छे.
स्वानुभवथी प्रमाण करजो. जिनागम ए मात्र जोवानी, के एकला बाह्य शोभा–
शणगारनी ज वस्तु नथी, एना अंतर–हार्द सुधी पहोंचीने स्वानुभव करवानो छे.
एटले मात्र परमागम–मंदिरनो भव्य उत्सव करीने अटकशो नहि, जे परमागम
तेमां कोतराया छे ते परमागमना अभ्यासमां निरंतर चित्तने जोडीने, तेना ऊंडा
हार्द सुधी पहोंचीने, आनंदमय परमात्मतत्त्वने अनुभूतिगम्य करजो.–ए
जिनवाणीनी सर्वोत्तमभक्ति छे, ने ए वीतरागगुरुओनी भलामण छे. समयसार–
जिनागमना अंतमां ‘आनंदमय विज्ञानघन आत्माने प्रत्यक्ष करतुं आ अक्षय
जगतचक्षु पूर्णताने पामे छे’–एम कहीने “आत्मानो प्रत्यक्ष अनुभव” ते आ
आगमनुं फळ बताव्युं छे.
नथी, तेथी जे भक्तिथी श्रुतने उपासे छे ते जिनदेवने ज उपासे छे. आपणे हंमेशांं
देव–गुरु साथे शास्त्रनी पण पूजा करीए छीए ने त्रण रत्नोमां (देव–शास्त्र–गुरु
तीन) तेने पण गणीए छीए. परंतु, शास्त्रने मात्र उत्तम कपडावडे बांधवाथी के
पूंठा चडाववाथी ज श्रुतपूजा समाप्त थई जती नथी; वास्तविक श्रुतपूजा तो
एकाग्रचित्तथी तेनुं अध्ययन करवुं ने तेना भाव समजवा ते ज छे. आवी
भावपूजामां देव अने शास्त्रनी एकता थई जाय छे. अत्यारे आपणने आ क्षेत्रे
जिनदेवना साक्षात्कारनुं सौभाग्य तो नथी, परंतु जिनवाणीनो तो साक्षात्कार थाय
छे ने तेना अभ्यासवडे आत्मानो पण साक्षात्कार थई शके छे.