Atmadharma magazine - Ank 363
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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: पोष : रप०० आत्मधर्म : २१ :
सोना के हीरा–माणेक वडे जेनी किंमत आंकी न शकाय–एवा गंभीर
आत्मभावो (के जे वीतरागी संतोना अनुभवमांथी नीकळेला रत्नो छे–) ते
समयसारादि परमागमोमां भर्या छे. अने तेथी ज आपणा जैन परमागमोनी महानता
तथा पूज्यता छे. जिनागमोमां जे गंभीर चैतन्यभावो भर्या छे ते बीजा कोई
शास्त्रोमां नथी.–आम परम बहुमानपूर्वक जिनागमनुं सेवन करो...तमने आत्माना
अमूल्य निधान मळशे. मुमुक्षुनी निरंतर भावना होय छे के–
आगमके अभ्यासमांही पुनि चित्त एकाग्र सदीव लगावुं;
दोषवादमें मौन रहुं फिर पुन्यपुरुष–गुण निशदिन गावुं.
हे जीव! गुणीजनोना गुणनी प्रशंसा करतां कदाच तने न आवडे, पण धर्मात्मा–
साधर्मीनी निंदा तो तुं कदी न करीश. गुणीषु प्रमोदं– गुणीजनोना गुणो प्रत्ये जेने
प्रमोदभाव छे ते जीव गुणप्राप्ति तरफ आगळ वधे छे. पण गुणनी ईर्षा करनार तो कदी
गुणने पामतो नथी.
रु रु रु रु रु
विद्वानोनुं मुख्य कार्य ए छे के–
आगमना रहस्यनुं उद्घाटन करीने समाजनी सामे राखवुं
“विद्वान केवल समाजके मुख नहीं है। वे आगमके रहस्योद्घाटनके
जिम्मेदार है। अतः उन्हें, हमारे अमुक वक्तव्यसे समाजमें कैसी प्रतिक्रिया होती
है, वह अनुकूल होती है या प्रतिकूल, यह लक्ष्यमें रखना जरुरी नहीं है। यदि
उन्हें किसी प्रकारका भय हो भी तो सबसे बडा भय आगमका होना चाहिए।
विद्वानोंका प्रमुख कार्य जिनागमकी सेवा है और वह तभी संभव है जब वे
समाजके भयसे मुक्त होकर सिद्धांतके रहस्यको उसके सामने रख सकें। कार्य
बडा है। इस कालमें इसका उनके ऊपर उत्तरदायित्व है, इसलिय उन्हें यह कार्य
सब प्रकारकी मोहममताको छोडकर करना ही चाहिए। समाजका संघारण करना
उनका मुख्य कार्य नहीं है। यदि वे दोनों प्रकारके कार्योंका यथास्थान निर्वाह कर
सकें तो उत्तम है। पर समाजके संघारणके लिये आगमको गौण करना उत्तम नहीं
है। हमें भरोसा हे कि विद्वान इस निवेदनको अपने हृदयमें स्थान देंगे और ऐसा
मार्ग स्वीकार करेंगे जिससे उनके सद्प्रयत्नस्वरूप आगमका रहस्य विशदताके
साथ प्रकाशमें आवे।।”
[–पंडित जगन्मोहनलालजी शास्त्री, कटनी]