: पोष : रप०० आत्मधर्म : २९ :
जैन केवो होय?
जैनना साचा पंडित मात्र शास्त्रभणतर वडे थई शकातुं
नथी, पण भावश्रुतथी स्व–परनी भिन्नतानो विवेक करीने
आत्माने जे जाणे ते साचो जैन–पंडित छे. एटले जैनधर्मना साचा
पंडित के श्रावक थवा माटे आ ज पहेलुं कर्तव्य छे के देहादिथी भिन्न
पोताना आत्माने जाणीने अनुभववो.
(अष्टप्रवचनमांथी.)
* अनंतगुणगंभीर सम्यक्त्वनी अद्भुतदशा! *
सम्यग्द्रष्टि जीव आत्माना शुद्धस्वरूपनो प्रकाशक छे, जीवादि नवे तत्त्वोनुं स्वरूप
जेम छे तेम ते जाणे छे. जीवादि तत्त्वोना साचा स्वरूपने जे न जाणे ते शुद्धताने क्यांथी
साधी शकशे? धर्मीजीव जीवादितत्त्वना स्वरूपने बराबर जाणीने तेमांथी पोताना शुद्ध
चैतन्यतत्त्वने बीजाथी भिन्न अनुभवे छे; ए रीते सम्यग्द्रष्टि जीव शुद्धतत्त्वनो प्रकाशक
छे, ते ज खरो पंडित छे; तेने आत्मविद्या आवडे छे तेथी ते ज खरो विद्वान छे. तेना
सम्यक्त्व–परिणाम शुद्ध छे; व्यवहारना शुभरागपरिणाम ते कांई शुद्ध नथी, ते तो
अशुद्ध छे. सम्यक्त्वपरिणाम तो राग वगरना शुद्ध छे, अने मिथ्यात्वनो तेमां अभाव
छे.
वळी ते सम्यग्द्रष्टिजीव साचा देव–गुरु–शास्त्रनो भक्त छे, तेमनी पूजा–भक्ति–
बहुमानमां तत्पर छे; अने तेमणे कहेला सम्यक्धर्मने ते आचरे छे. मिथ्याभावथी मुक्त
थईने ते सम्यक्त्वने अनुभवे छे, सम्यक्त्वादिरूपे परिणमेला शुद्ध आत्माने ते वेदे छे.
जुओ, संतोए सम्यग्द्रष्टिजीवनी अंतरंगदशानुं केवुं सरस वर्णन कर्युं छे!
चिदानंदस्वभावनी सन्मुख थयेला सम्यग्द्रष्टिने रागादि दुःखभावो प्रत्ये सहेजे
उदासीनभाव होय छे, एटले तेना परिणाम संसारथी विमुख वर्ते छे. भले गृहवासमां
होय तोपण खरेखर ते संसारथी विमुख छे. अनंतगुणगर्भित श्रद्धानुं बळ ज कोई एवुं
छे के आत्माने परभावोथी पृथक् ज देखे छे.