मिथ्याद्रष्टिना परिणाम अशुद्ध छे, ते स्वभावथी विमुख छे ने संसारनी सन्मुख छे.
जेने शुभरागनी पण रुचि छे तेना परिणाम संसारनी सन्मुख छे, मोक्षसन्मुख तेना
परिणाम नथी.
आठ प्रधान गुणोमां ‘सम्यक्त्व–गुण’ कहेल छे त्यां ‘गुण’ एटले गुणनी शुद्धपर्याय,
दोष वगरनी पर्याय’ एवो तेनो अर्थ छे. सामान्यगुण नवो न प्रगटे, पण तेनी
शुद्धपर्याय नवी प्रगटे. श्रद्धागुण तो बधा जीवोमां त्रिकाळ छे, तेनुं शुद्ध परिणमन थतां
सम्यग्दर्शनादि शुद्धपर्याय प्रगटे छे, ते कोई विरल जीवोने ज थाय छे. आ रीते द्रव्य–
गुण–पर्यायने जेम छे तेम बराबर जाणवा जोईए. वस्तुना द्रव्य–गुण–पर्यायनुं ज्ञान ते
तो जैनधर्मनुं मूळ छे; ने ते सम्यक्त्वादिनुं कारण छे.
गुणनुं स्वतंत्र पर्यायरूप परिणमन.–आवा द्रव्य–गुण–पर्यायनुं यथार्थ स्वरूप धर्मी जीव
बराबर जाणे छे. भगवान जिनेश्वरना मतमां ज तेनुं यथार्थ प्रतिपादन छे, अने
जिनेश्वरना नंदन एवा सम्यग्द्रष्टि ज तेने बराबर जाणे छे. माटे कह्युं के सम्यग्द्रष्टि
जीव देव–गुरु–शास्त्रनो साचो भक्त छे अने तेमना कहेला धर्मने ते सम्यक्पणे आचरे
छे.
मुनिदशानी शी वात! एमनी शुद्धता ने एमनुं सुख तो सर्वार्थसिद्धिना देव करतांय
विशेष छे. ए तो परमेष्ठी पद छे, अरिहंतो अने सिद्धोनी साथे नमस्कारमंत्रमां एमनुं
नाम आवे छे; सम्यग्द्रष्टि जीवो पण दासानुदासपणे परम भक्तिथी एमना चरणोमां
मस्तक झुकावे छे. वाह, ए मुनिदशा! अरे, सम्यग्दर्शन पण अपूर्व दशा