Atmadharma magazine - Ank 363
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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: ३० : आत्मधर्म : पोष : रप००
सम्यग्द्रष्टि अने मिथ्याद्रष्टिना परिणाममां मोटुं अंतर छे. सम्यग्द्रष्टिना
परिणाम शुद्ध छे, ते संसारथी विमुख छे अने स्वभावनी सन्मुख छे; त्यारे
मिथ्याद्रष्टिना परिणाम अशुद्ध छे, ते स्वभावथी विमुख छे ने संसारनी सन्मुख छे.
जेने शुभरागनी पण रुचि छे तेना परिणाम संसारनी सन्मुख छे, मोक्षसन्मुख तेना
परिणाम नथी.
* जैनधर्मनुं मूळ: द्रव्य–गुण–पर्यायनुं ज्ञान *
धर्मीने सातप्रकृतिना क्षयादिथी जे शुद्ध सम्यक्त्व प्रगट्युं ते कांई त्रिकाळीगुण
नथी पण गुणनुं शुद्ध परिणमन छे एटले के शुद्ध परिणाम छे–पर्याय छे. सिद्धप्रभुना
आठ प्रधान गुणोमां ‘सम्यक्त्व–गुण’ कहेल छे त्यां ‘गुण’ एटले गुणनी शुद्धपर्याय,
दोष वगरनी पर्याय’ एवो तेनो अर्थ छे. सामान्यगुण नवो न प्रगटे, पण तेनी
शुद्धपर्याय नवी प्रगटे. श्रद्धागुण तो बधा जीवोमां त्रिकाळ छे, तेनुं शुद्ध परिणमन थतां
सम्यग्दर्शनादि शुद्धपर्याय प्रगटे छे, ते कोई विरल जीवोने ज थाय छे. आ रीते द्रव्य–
गुण–पर्यायने जेम छे तेम बराबर जाणवा जोईए. वस्तुना द्रव्य–गुण–पर्यायनुं ज्ञान ते
तो जैनधर्मनुं मूळ छे; ने ते सम्यक्त्वादिनुं कारण छे.
जगतमां अनंतानंत (अक्षय–अनंत) जीवो छे. दरेक जीव स्वतंत्र, कोईना
बनाव्या वगरनो स्वतःसिद्ध छे; एकेक जीवमां पोताना अनंत गुणो; ने त्रणेकाळे
गुणनुं स्वतंत्र पर्यायरूप परिणमन.–आवा द्रव्य–गुण–पर्यायनुं यथार्थ स्वरूप धर्मी जीव
बराबर जाणे छे. भगवान जिनेश्वरना मतमां ज तेनुं यथार्थ प्रतिपादन छे, अने
जिनेश्वरना नंदन एवा सम्यग्द्रष्टि ज तेने बराबर जाणे छे. माटे कह्युं के सम्यग्द्रष्टि
जीव देव–गुरु–शास्त्रनो साचो भक्त छे अने तेमना कहेला धर्मने ते सम्यक्पणे आचरे
छे.
* वाह रे वाह, मुनिदशा! सम्यग्द्रष्टि तेनो भक्त छे. *
सम्यग्दर्शन उपरांत ज्यारे अंतरमां आत्मस्वरूपमां घणी लीनता थाय त्यारे
मुनिदशा होय छे. सम्यग्द्रष्टिने आवी मुनिदशानी निरंतर भावना होय छे. अहो,
मुनिदशानी शी वात! एमनी शुद्धता ने एमनुं सुख तो सर्वार्थसिद्धिना देव करतांय
विशेष छे. ए तो परमेष्ठी पद छे, अरिहंतो अने सिद्धोनी साथे नमस्कारमंत्रमां एमनुं
नाम आवे छे; सम्यग्द्रष्टि जीवो पण दासानुदासपणे परम भक्तिथी एमना चरणोमां
मस्तक झुकावे छे. वाह, ए मुनिदशा! अरे, सम्यग्दर्शन पण अपूर्व दशा