Atmadharma magazine - Ank 363
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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: पोष : रप०० आत्मधर्म : ३१ :
छे त्यां मुनिदशानी तो शी वात! मुनिवरो तो आत्माना महा आनंदना झुले झूली रह्या
छे. अहो! ए तो संत–परमेश्वर छे, परम गुरु छे, मोक्षना उग्रपणे साधक छे,
सिद्धपदना पाडोशी छे. सम्यग्द्रष्टि जीव आवा मुनिनो भक्त होय छे; ने ते
सम्यग्द्रष्टिनी दशा पण अलौकिक होय छे.
धर्मीने अशुभ–भोग वखते कांई ते भोगथी निर्जरा नथी,
सम्यक्त्वथी निर्जरा छे; भोगो तो बंधनां ज कारण छे.
सम्यग्दर्शन ते आत्माना शुद्धपरिणाम छे, तेना वडे ते शुद्धतत्त्वने प्रकाशे छे,
शुद्धात्मानुं स्वसंवेदन करे छे. पर्यायमां हजी अमुक अशुद्धता वर्तती होवा छतां
भेदज्ञानशक्तिना बळे ते पोताना आत्माने शुद्धपणे प्रकाशे छे, एटले भोगादिमां तो
तेने स्वप्नेय सुख भासतुं नथी.
भोगना अशुभपरिणाम वखतेय सम्यग्द्रष्टिने निर्जरा चालु छे, केमके ते
वखतेय तेना अंतरमां शुद्धतत्त्वना श्रद्धा–ज्ञानरूप शुद्धपरिणामनी धारा वर्ती रही छे,
अने ते तो निर्जरानुं ज कारण छे, तेथी तेने निर्जरा चालु छे–एम समजवुं. पण
विषयोनो अशुभराग पोते कांई निर्जरानुं कारण नथी, ते तो बंधनुं ज कारण छे;
सम्यग्द्रष्टिने पण जेटलो राग छे ते तो बंधनुं कारण छे. आ रीते सम्यग्द्रष्टिने
भूमिकामुजब शुद्ध तेमज अशुद्ध भावो एकसाथे वर्ते छे, पण बंनेनुं कार्य जुदुं छे. तेमां
शुद्धभाव तो निर्जरानुं कारण छे एटले तेनी प्रधानता गणीने धर्मीने निर्जरा कहेवामां
आवी छे, ते यथार्थ छे.
* हे जीव! कुमार्गसेवनथी तें घणां दुःख सहन कर्यां, हवे तेने छोड; *
ने भक्तिथी जैनमार्गने ओळखीने तेनुं सेवन कर.
अरे जीव! जिनमार्गथी विरुद्ध कुदेवादिने मानीने मिथ्यात्वना सेवनथी
संसारमां नरकादिना घोर दुःखो तें भोगव्या. माटे हे भाई! हवे कुमार्गनुं सेवन तुं
छोड, ने शुद्ध सम्यक्त्वादिमां रत था. कुदेव–कुगुरु–कुशास्त्रना सेवनथी तो तुं नरकादिना
घोरदुःखने पामीश. रागना वधारनारा एवा कुदेव–कुगुरु–कुशास्त्रने सेवनार जीव
मोक्षने माटे अपात्र छे, ने ते नरकादिमां पडे छे; कदाच शुभरागथी स्वर्गमां जाय तो
त्यां पण मिथ्यात्वथी ते दुःखी ज छे, ते मिथ्यासेवनथी ते स्वर्गमांथी नीकळीने निगोद
वगेरेमां जशे;–एनां दुःखनी शी वात? दया करीने संतो कहे छे के हे भव्य! आवा
दुःखोथी छूटवा माटे तुं शुद्ध द्रष्टि वडे मिथ्यात्वने छोड, कुदेवादिना