Atmadharma magazine - Ank 363
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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: पोष : रप०० आत्मधर्म : ३३ :
अरिहंत–परमेष्ठी ते देव छे; तेमने जे ओळखे छे, तथा तेमना जेवो ज हुं पण आ
शरीरनी मध्ये केवळज्ञानादि स्वभावसहित छुं–एम जे जाणे छे एवा सम्यग्ज्ञानी ते ज
खरा पंडित छे.
ए ज प्रमाणे, अष्टकर्मथी विमुक्त, मुक्तिस्थाने (सिद्धालयमां) बिराजमान
जेवा सिद्धभगवंतो छे, तेमना जेवो ज मारो आत्मा आ शरीरमध्ये बिराजी रह्यो छे–
एम शुद्धद्रष्टिथी जे अनुभवे छे ते ज खरो पंडित छे.
जेवा जीवो छे सिद्धिगत, तेवा जीवो संसारी छे;
जेथी जन्म–मरणादि हीन, ने अष्टगुणसंयुक्त छे. (नियमसार गा. ४७)
–आवा निज आत्माने अंर्तबुद्धिथी जे जाणे छे ते ज साचो विद्वान अने पंडित
छे. आत्माने जाण्या वगर एकला शास्त्रना शब्दोनुं भणतर होय एने कांई साचा
पंडित कहेता नथी. जे चैतन्य–विद्यामां प्रवीण होय तेने ज मोक्षना मार्गमां साचा
विद्वान कहेवाय छे. अरे, जे भणतर भवथी तरवामां काम न आवे एवा भणतरने ते
पंडिताई कोण कहे? भाई, तें शास्त्रो जाण्या ने लोकोए तने पंडित मान्यो, पण जो
तारा आत्माने तें न जाण्यो तो तारुं शुं हित थयुं? तारी पंडिताई तने शुं काम आवी?
आत्माने जाण्या वगर परमार्थमार्गमां तो तुं मूर्ख ज रह्यो.–योगसारमां कहे छे के–
शास्त्रपाठी पण मूर्ख छे, जे निजतत्त्व अजाण,
ते कारण ए जीव खरे पामे नहि निर्वाण. (प३)
परमात्माने जाणीने त्याग करे परभाव,
ते आत्मा पंडित खरो, प्रगट लहे भवपार. (८)
वळी योगसारमां ज कहे छे के–
जे जाणे शुद्धात्मने अशुची देहथी भिन्न,
ते ज्ञाता सौ शास्त्रनो शाश्वत–सुखमां लीन. (९प)
अने एनाथी उल्टुं–
निज–पररूपथी अज्ञजन जे न तजे परभाव,
जाणे कदी सौ शास्त्र पण थाय न शिवपुर राव. (९६)
भले कदाच शास्त्र भणतर न भण्यो होय, संस्कृत वांचतां के भाषण करतां