Atmadharma magazine - Ank 363
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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: ३४ : आत्मधर्म : पोष : रप००
आवडतुं न होय, पण जेने आत्मानुं स्वरूप जाणीने तेनो अनुभव करतां आवडयुं ते
परमार्थमार्गमां पंडित छे, बारे अंगनो सार तेणे जाणी लीधो छे. अने जे स्व–परनी
भिन्नता जाणतो नथी, परभावथी भिन्न शुद्धात्माने पोतामां अनुभवतो नथी, ते
अज्ञानी भले कदाच घणां शास्त्रो भणे तोपण ते मोक्षसुखने जरापण पामतो नथी. आ
रीते जे शुद्धात्माने जाणे छे ते ज खरो शूरवीर ने पंडित छे. श्री कुंदकुंदस्वामी पण कहे छे
के–
ते धन्य छे कृतकृत्य छे शूरवीर ने पंडित छे,
सम्यक्त्व–सिद्धिकर अहो, स्वप्नेय नहि दूषित छे. (मोक्षप्राभृत गा. ८९)
एकला शास्त्रभणतरथी धर्ममां पंडितपणुं कहेता नथी. शुद्धनयअनुसार साचा
तत्त्वने जाणीने सर्वज्ञवचनअनुसार पंडितो तेनुं कथन करे छे. परंतु आत्माना मूळभूत
सत्य स्वरूपने तो जेओ जाणता नथी ने शास्त्रना जाणपणामां ज संतुष्ट थईने बेठा छे
एवा पंडितने माटे तो कहे छे के–
पंडिय पंडिय पंडिय कण छंडिय वि तुस खंडिया
पय अत्थं तुठ्ठोसि परमत्थ ण जाणई मूढोसि।।
(मोक्षमार्गप्रकाशकमां पाहुडदोहानी गा. ८प)
हे पंडित! हे पंडित! हे पंडित! जो तुं परमार्थ तत्त्वने नथी जाणतो ने शब्दना
अर्थमां ज संतुष्ट छो तो, कणने छोडीने फोतरां खांडनारनी जेम तुं मूर्ख छो. अहो, बधी
विद्याओमां आत्माने जाणनारी विद्या ते ज सौथी श्रेष्ठ विद्या छे. आवी अध्यात्मविद्या
ए तो भारतदेशनी मूळ वस्तु छे, तेने लोको भूली गया छे; अत्यारे तेनो ज प्रचार
करवा जेवुं छे.
धर्मी जाणे छे के अहो, परमात्मपणुं मारा आत्मामां भर्युं छे; आ शरीरादि हुं
नहीं. आ रीते जेणे देह अने आत्मानी भिन्नतानो विवेक कर्यो अने अंतर्मुख थईने
ज्ञान–आनंदस्वरूप आत्मानो अनुभव कर्यो ते खरो पंडित छे, ते मोक्षनो साधक छे,
पंचपरमेष्ठीपदने ते पोतामां देखे छे. –
आत्मा ते अरिहंत छे, सिद्ध निश्चये ए ज;
आचारज उवझाय ने साधु निश्चये ते ज. (१०४)
ते सम्यग्द्रष्टि धर्मात्मा जाणे छे के मारा आत्मामां परमात्मस्वभाव छे, एटले
शुद्धद्रष्टिथी हुं परमात्मा ज छुं.–आ प्रमाणे पोताना स्वभावने परमात्मस्वरूपे