Atmadharma magazine - Ank 363
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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: पोष : रप०० आत्मधर्म : ३५ :
चिंतवतां ध्यानमां अमने कोई अपूर्व आनंद अनुभवाय छे; माटे ते ध्यान सत् छे, तेनुं
आ फळ छे. जो ते ध्यान जूठुं होय तो तेना फळमां आनंद केम आवे? पर्यायमां हजी
पूरुं परमात्मपणुं प्रगट्युं न होवा छतां, शक्तिमां रहेला परमात्मस्वरूपमां पर्यायने
लीन करीने परमात्मस्वरूपे ज पोते पोताने ध्यावतां धर्मीने निर्विकल्प अनुभवनो
परम अद्भुत आनंद थाय छे; माटे परमात्मस्वरूपे पोताने चिंतववो ते सत् छे.–
जे परमात्मा ते ज हुं, जे हुं ते परमात्म;
एम जाणी हे योगीजन! करो न कांई विकल्प. (रर)
ध्यानवडे अभ्यंतरे देखे जे अशरीर,
शरमजनक जन्मो टळे, पीए न जननी क्षीर. (६०)
देहनो संयोग अने पर्यायमां रागादिभावो होवा छतां, तेटलो ज पोताने न
मानतां, देहथी भिन्न ने रागथी पार एवो अतीन्द्रिय ज्ञानानंदस्वभाव पण पोतामां सत्
छे–ते रूपे पोताना आत्माने श्रद्धा–ज्ञान–चिंतनमां लेवो ते अरिहंत परमात्मानुं अभेद–
ध्यान छे, तेमां साधकने आत्माना आनंदनो अनुभव थाय छे, ने पर्यायमां शुद्धता थाय
छे. एवो जीव स्व–परनो खरो विवेकी पंडित छे. बाकी शास्त्र भणी–भणीने पंडित
कहेवडावे–पण जे एम माने के रागनी क्रिया अथवा शरीरनी क्रिया मोक्षनुं कारण थशे,
–तो ते पंडित मात्र फोतरां–खंडित छे, एटले के ते खरेखर पंडित नथी पण मूरख छे. हे
भाई! शास्त्रोए बतावेली मूळवस्तु तो तारा अंतरमां छे,–जे देहथी पार छे, रागथी
पार छे, ईंद्रियज्ञानथीये पार छे, एवी चैतन्यभावमय वस्तुने अंर्तद्रष्टिथी तुं जाण–
जैनधर्मना साचा पंडित के श्रावक थवा माटे आ ज पहेलुं कर्तव्य छे.
–जय महावीर
* * * * *
वैराग्य–समाचार:–
* ईंदोरना वयोवृद्ध पंडित श्री बंसीधरजी न्यायालंकार (उ. व. ८३) ता. ७–१र–७३
ना रोज स्वर्गवास पाम्या छे. तेओनो शास्त्राभ्यास घणो विशाळ हतो, मोटा
भागना संस्कृत श्लोको तेमने मोढे हता. तेओ श्री गणेशप्रसादजी वर्णीजीनी
हरोळना, प्राचीन पेढीना एक पंडित हता, ने हालना पंडितोमांथी सेंकडो पंडितोना
विद्यागुरु हता. अवारनवार सोनगढ आवीने तेओ गदगदित थई जता;