जीव–अजीवना भेदज्ञानरूप सम्यग्ज्ञान, अने रागादि दोषरहित एवी
वीतरागता,–ते मोक्षनो प्रसिद्ध मार्ग छे. वीतराग–विज्ञानने मोक्षमार्ग कह्यो तेमां आवुं
विज्ञान अने आवी वीतरागता होय छे. सम्यग्ज्ञान वगर चारित्र होतुं नथी, ने
चारित्र वगर मोक्ष होतो नथी.
* चारित्र केवुं?–के राग वगरनुं; (राग ते चारित्र नहीं. )
* ज्ञान केवुं? के जीव अने अजीव बंनेना भिन्नभिन्न स्वरूपने जाणनारुं
सम्यग्ज्ञान; (एकलुं बहारनुं जाणपणुं ते ज्ञान नहीं.)
आवा ज्ञान ने चारित्र ते मोक्षमार्ग छे. सम्यग्ज्ञाननी साथे सम्यग्दर्शन आवी
गयुं; आ रीते सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप मोक्षमार्ग छे. आवो मोक्षमार्ग होय त्यां
बाह्यमां नग्नता ज होय छे. श्रीमद्राजचंद्रजी आवा मोक्षमार्गनी भावना भावतां कहे
छे के–‘क्यारे थईशुं बाह्यांतर निर्ग्रंथ जो’ तेमां अंतर अने बाह्य बंने प्रकारे निर्ग्रंथ
थवानी भावना छे.
चैतन्यस्वरूप आत्मा ते ज साचुं चैत्य;
ते जेमां बिराजे छे ते साचुं चैत्यालय.
‘चैत्य’ एटले ज्ञान; ते जेमां रहे छे ते ‘चैत्य–गृह छे. मुनि वगेरे धर्मी जीवोना
आत्मामां शुद्धज्ञानरूप चैत्य वसे छे तेथी ते आत्मा ज चैत्य–गृह छे. परमार्थे बधा
आत्मा चैत्यस्वरूप–चेतनास्वरूप छे तेथी ते चैत्यगृह छे; आवा आत्माना अनुभवरूप
ज्ञानचेतना जेना अंतरमां वर्ते छे ते जीव परमार्थ चैत्य छे. आ ‘भाव–चैत्य’ छे; ने
मंदिर वगेरेमां चैत्य (जिनप्रतिमा) नी स्थापना ते स्थापना–चैत्य छे, ते व्यवहार छे.
–बंनेने जेम छे तेम जाणवा जोईए.
चैत्यस्वरूप भगवान आत्मा छे, तेने जाणीने आदर करे ते जीव सुखने अने
मोक्षने पामे छे. अने चैत्यस्वरूप आत्माने जे जाणतो नथी ने तेनो विरोध करे छे, ते
जीव दुःखने अने बंधने पामे छे. चैतन्यस्वरूप आत्माना सेवनथी जीवने सुखनो
अनुभव छे; चैत्यस्वरूप आत्माथी जे प्रतिकूळ वर्ते छे तेने दुःखनो अनुभव छे.
परमार्थ चैत्यगृह तो ज्ञानस्वरूप आत्मा छे, ने व्यवहारमां तेनी स्थापनारूप
चैत्य–मंदिर (जिनमंदिर) वगेरे होय छे; ते ‘स्थापना ’ ने न जाणे तो तेनुं पण ज्ञान
साचुं नथी. सम्यग्ज्ञानना विषयमां नाम–स्थापना–द्रव्य ने भाव ए चारे निक्षेप