Atmadharma magazine - Ank 364
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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: १२ : आत्मधर्म : महा : २५००
मानवा जोईए. तेनो जे निषेध करे तेने सम्यग्ज्ञान नथी. एटले स्थापना–निक्षेपमां
पण जिनबिंब वगेरे होय छे तेने धर्मीजीव यथार्थ जेम छे तेम स्वीकारे छे. पण आथी
एम न समजवुं के ते परना आश्रये सम्यग्दर्शनादि थई जाय छे. सम्यग्दर्शनादि तो
स्वद्रव्यना ज आश्रये छे; जिनप्रतिमा वगेरे परद्रव्यना आश्रये तो शुभराग छे, ते
शुभरागथी जिनशासनमां पुण्यबंधन कह्युं छे, पण शुभरागने जिनशासनमां मोक्षहेतु
–धर्म नथी कह्यो. मोक्षहेतु–धर्म तो मोहरहित रागद्वेषरहित वीतरागभावरूप छे. आवा
वीतरागभावरूप धर्ममां कोई प्रकारे कोई जीवनी हिंसा नथी, तेथी ते ज परम अहिंसा
धर्म छे. शुभरागनी क्रियाओमां तो कंईक सावद्यपणुं पण संभवे छे, ते कांई परमार्थधर्म
नथी. रागथी भिन्न एवी शुद्धज्ञानचेतना जे आत्मामां बिराजे छे ते आत्मा पोते
जीवंत–चैत्यगृह छे.
धर्मात्मा मुनिवरो पोताना आत्माने चैतन्यस्वरूप जाणे छे ने बीजा
आत्माओने पण चैतन्यस्वरूप जाणे छे. शुद्ध रत्नत्रयरूपे थयेला हालता–चालता
मुनिवरो ते ‘जिनप्रतिमा’ छे, जिन जेवा निर्ग्रंथस्वरूपे तेओ विचरे छे. आवी दशाने
याद करीने तेनी भावनाथी श्रीमद्–राजचंद्र लखे छे के ‘हे चैतन्य! जिनप्रतिमा था..
जिनप्रतिमा था! ’
अहो, मुनिओ, तो रत्नत्रयनी साक्षात् मूर्ति छे, ते वंदनीय छे. शांत–चैतन्य–
प्रतिमा थईने तेओ उपशांतरसमां लीन थया छे, असंख्य आत्मप्रदेशोमां चैतन्यनो
शांत–उपशमरस टपकी रह्यो छे. एवा वीतराग मुनिवरोनी बाह्य आकृति पण जिनदेव
जेवी वीतराग–दिगंबर होय छे, रागवाळी होती नथी,–एवो व्यवहार जैनमतमां छे,
तेमनी स्थापनारूप प्रतिमा पण तेवी ज वीतराग मुद्रावाळी होय छे.
* जिनप्रतिमा जिनसारखी.....भाखी आगममांय *
जे शुद्ध रत्नत्रयस्वरूप थया छे अने जेणे मोहने जीत्यो छे ते आत्मा पोते
जिनप्रतिमा एटले केवळीभगवान, ते अनंतचतुष्टयना भावसहित छे, तेरमा
गुणस्थाने बिराजे छे, शाश्वत सुखरूप थया छे, लोकना कोई पदार्थनी उपमा जेने आपी
शकाती नथी, जगतना कोई बनावथी जेमना उपयोगमां कदी क्षोभ थतो नथी.