एवा अक्षोभ निश्चल छे,–सागर समान गंभीर छे.–आवा अनंतगुणसंपन्न अरिहंत
परमात्मा ते साक्षात् चैतन्यमय जिनप्रतिमा छे; तेमज देहातीत एवा सिद्धभगवंतो
पण (उपरना समस्त गुणोसहित छे ते) साक्षात् जिनप्रतिमा छे. चैतन्यरूप आवा
जिनप्रतिमाने ओळखीने मूर्तिमां जे स्थापना करवामां आवे छे ते पण वीतरागतानी
ज सूचक होय छे; तेने वस्त्र–आभूषण के फूल–हार होतां नथी.
वगेरेमां तेनी स्थापना ते व्यवहार छे, शुभरागमां ते पण पूज्य छे, वीतरागतामां तो
बहारनुं आलंबन रहेतुं नथी; त्यां तो आत्मा पोते चैतन्यभावरूप जिनप्रतिमा थयो
छे...पोतामां लीन थईने ते पोते पोताने आराधे छे.
अरिहंतदेवना शुद्धद्रव्य–गुण–पर्यायने जे खरेखर ओळखे छे ते तो रागाथी भिन्न
चैतन्यस्वरूप आत्माने ओळखी ल्ये छे. अरिहंत जिननी आवी परमार्थ ओळखाण
सम्यग्द्रष्टिने ज होय छे. तेना ज्ञानपूर्वक जे जिनप्रतिमा वीतरागमुद्रादर्शक होय छे ते
व्यवहारमां वंदनीय होय छे, ने तेमां शुभराग छे. आवा निश्चय ने व्यवहार बंने
एकसाथे धर्मीने होय छे.
एटले–
धर्मी–साधकने शुद्धात्मज्ञान अने राग बंने एकसाथे वर्ते छे–पण तेमां जे
रीते एक पर्यायमां बंने साथे होवा छतां बंनेनुं स्वरूप जुदुं छे, बंनेनुं कार्य जुदुं छे. ए
वात समयसार कळश ११० मां आचार्य देवे स्पष्ट समजावी छे. त्यां कहे छे के–