Atmadharma magazine - Ank 364
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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: १४ : आत्मधर्म : महा : २५००
ज्यांसुधी ज्ञाननी कर्मविरति बराबर परिपूर्णता पामती नथी त्यांसुधी कर्म अने
ज्ञाननुं एकठापणुं शास्त्रमां कह्युं छे; तेमना एकठा रहेवामां कांई पण क्षति अर्थात्
विरोध नथी; परंतु तेमां जे कर्म छे ते तो बंधनुं कारण छे, अने मोक्षनुं कारण तो जे
एक परम ज्ञान छे ते ज छे, ते ज्ञान पोते कर्मथी छूटुं ने छूटुं मुक्त ज छे.
* पंचमकाळे जिननो विरह अमने नथी *
साक्षात् जिन तीर्थंकरो जीवंत–प्रतिमापणे भरतक्षेत्रमां विचरता हता ने उपदेश
देता हता. २५०० वर्ष पहेलांं महावीरप्रभु मोक्ष पधार्या; परंतु त्यारपछी थयेला
गौतमस्वामी–कुंदकुंदाचार्यस्वामी वगेरे वीतरागसंतोए जैनशासन टकावीने, तीर्थंकरोनी
गादीनुं स्थान खाली रहेवा दीधुं नथी; तीर्थंकरोना उपदेशनी परंपरा वीतरागी संतोए
आज सुधी टकावी राखी छे. अहो, महाभाग्ये आजे आवो वीतरागमार्ग प्राप्त थाय छे.
आवो मार्ग टकावनारा वीतराग संतो तेओ पण ‘जिनप्रतिमा’ छे. जिननो उपदेश
अने ते संतोनो उपदेश एक ज प्रकारनो छे, तेमां फेर नथी. अहो, साक्षात् जिनतूल्य
आवा संतो पूजनीय छे. तीर्थंकरोनो विरह ए संतोए भूलावी दीधो छे, ने तीर्थंकरोना
उपदेशनो साक्षात्कार कराव्यो छे. तेथी साधक कहे छे के अहो, संतोना प्रतापे आ
पंचमकाळमां अमने जिननो मार्ग मळ्‌यो छे एटले पंचमकाळे पण जिननो विरह अमने
नथी. अहो, आवा संतोने ज्ञानमां लईने तेमनो सर्व प्रकारे आदर–बहुमान करो.
जिन’ केवा छे? जिन तो ज्ञानचेतनामय छे. आवी ज्ञानचेतनास्वरूपे जिनने
ओळखतां, रागथी भिन्न पडीने ज्ञान अंतर्मुख थाय छे.
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“आत्मभाषा”
अहा, आचार्यभगवाने स्वानुभवनुं घोलन करी
करीने एकेक शक्ति काढी छे, एकेक शक्तिना वर्णनमां
स्वानुभवनो रस रेड्यो छे, आ तो वीतरागी सन्तोनी
वाणी! आ ‘आत्मभाषा’ छे. वाणी तो जोके जड छे पण
आत्माना अनुभवनुं निमित्त लईने नीकळेली सन्तोनी
भाषा ते ‘आत्मभाषा’ छे. एना भावने जे समजे तेने
अपूर्व आत्मजीवन प्रगटे.