Atmadharma magazine - Ank 364
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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: २० : आत्मधर्म : महा : २५००
अहा, अमे सर्वज्ञ–परमात्माने सेवनारा...अमारा आत्मामां हवे दीनता रहे
नहीं.–जेम मोटा चक्रवर्तीने सेवनारा गरीब होय नही. पूर्ण ज्ञान–आनंदरूप थयेला
सर्वज्ञ परमात्मा, तेओ ज पूर्ण ज्ञान–आनंदनो उपदेश देनारा छे, ने तेमने ओळखी
तेमना मार्गने सेवनारा जीवो पण तेवा ज पूर्ण ज्ञान–आनंदने पामे छे. अहो, प्रभो!
अमे आपने सेवनारा, ने अमे हवे गरीब के अल्पज्ञ रहीए–एम बने ज नहीं. ‘तुं
सिद्ध, हुं पण सिद्ध’ एवा विश्वासथी उपडेलो साधक अल्पकाळमां सिद्ध थई जशे. आवो
आत्मा जेणे अनुभवमां लीधो तेणे ज खरेखर सर्वज्ञ–केवळी प्रभुने सेव्या छे. आ रीते
देवनी सेवा करनार जीवने निमित्त तरीके ते देव शुद्ध रत्नत्रयना देनार छे,
जेनी पासे जे होय तेने सेवतां ते मळे.
आंबाना झाडने सेवतां आंबा मळे,
लींबडाना झाडने सेवतां कांई आंबा न मळे.
तेम सर्वज्ञ–वीतरागपद जेणे प्रगट कर्युं छे एवा देवना मार्गने सेवतां शुद्ध
रत्नत्रय मळे छे.
पण रागी–द्वेषी–मोही जीवो पासे रत्नत्रय नथी तेथी तेमना सेवन वडे
सम्यक्त्वादि रत्नत्रय पमाता नथी.
आ रीते वीतरागदेव ज रत्नत्रयना दातार छे एम समजवुं. आ जाणीने हे
सर्वज्ञना मागमां जे शुद्ध रत्नत्रय छे ते ज महा पवित्र तीर्थ छे, ते तीर्थना
‘ज्ञानतीर्थ’ अथवा उत्तम क्षमादि शांत भावरूप थयेलो आत्मा, ते परमार्थ–