आत्मा ज अमारुं शरण छे; अमारी श्रद्धानुं ज्ञाननुं शांतिनुं आलंबन अमारो आत्मा
ज छे, तेना ज अवलंबनथी अमारा श्रद्धा–ज्ञान–शांति छे. अयोध्यामां हती त्यारे
शरणवाळी हती ने हवे जंगलमां अशरण थई गई–एम ते मानती नथी. अयोध्या
वखतेय कंई ते अयोध्या, राम, के राम प्रत्येनो राग–ए कोई अमारुं शरण न हतुं, ते
कोईना शरणे अमारी शांति के ज्ञानादि न हता; ते वखतेय अमारो आत्मा ज अमारुं
शरण हतुं. ने अत्यारे वनमां पण अमारो शाश्वत ज्ञानमय आत्मा ज अमारुं शरण छे.
वीतरागनी वाणी तो तारुं तत्त्व तारामां ज बतावे छे. तारो आत्मा तारा ज्ञानादिनी
निर्मळपर्यायमां वर्ते छे, बहार नथी वर्ततो. तारी अनुभूतिमां तारा द्रव्य–पर्याय अभेद
छे, वच्चे त्रीजुं कोई तेमां आवतुं नथी. निर्विकल्पअनुभूतिमां तो ‘आ द्रव्य ने आ
पर्याय’ एवा भेद पण रहेता नथी. आवो आत्मा ध्यानवडे श्रद्धामां–ज्ञानमां–
चारित्रमां आवे तेनुं नाम शुद्ध भाव छे, ने ते मोक्षनुं कारण छे. आवा शुद्धभाव
सिवाय बीजुं कोई मोक्षनुं कारण नथी.
जेनामां सादि–अनंतकाळनी अनंत–अनंत सुखदशा प्रगटवानी ताकात, जेनामां अनंत
केवळज्ञानपर्यायरूप थवानी ताकात,–एनो जे पर्यायमां स्वीकार थयो ते पर्याय तो सुख
अने केवळज्ञान तरफ परिणमवा लागी; रागथी छूटीने स्वभावमां नमी गई.–एवी
पर्यायमां अखंड आत्माने धर्मी अनुभवे छे. धर्मीने कोई पर्यायमां पोताना
परमात्मानो विरह नथी. मारी पर्यायना मंडपे मारा चैतन्यप्रभु पधार्या छे.
पधारजो....मारी पर्यायमां राग नहि, मारी पर्यायमां तो मारो चैतन्यप्रभु बिराजे छे–
एम धर्मी अनुभवे छे. एनी परिणतिमां प्रभु पधार्या छे. ते परिणति हवे मोक्षदशा
लीधा वगर पाछी फरे नहि. पर्याये–पर्याये प्रभुने साथे राखीने मोक्ष लीधे ज छूटको.