Atmadharma magazine - Ank 364
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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: महा : रप०० आत्मधर्म : ३७ :
चैतन्य शक्तिना चमकारा


* अनंतगुणमय पोतानी चैतन्यसत्तानो ज्यां में स्वीकार कर्यो त्यां मारी
परिणतिमां अनंतगुणनो निर्मळभाव विद्यमान वर्ते छे. मारा अनंतगुणनो, ने
तेना निर्मळभावनो मने कदी विरह नथी.–आवी धर्मीनी दशा होय छे.
* अहा, चैतन्यनी शुद्धशक्तिने निर्विकल्पपणे स्वीकारे ने पर्यायमां तेनी शुद्धतानो
विर रहे–एम कदी बने नहि.
* जे पर्याये पोते अंदर ऊतरीने शुद्ध शक्तिनो स्वीकार कर्यो, ते पोते तो शुद्ध
भावपणे विद्यमान वर्ते छे, तेमां शुद्धतानो विरह केम होय? पोताने पोतानो
विरह होय नहि; तेम चैतन्यशक्तिनी विद्यमानता जे पर्याये स्वीकारी ते
पर्यायमां शक्तिनो विरह नथी; तेमां तो शुद्धता विद्यमानभावपणे वर्ते छे.
* ते एक पर्यायमां चैतन्यभाव छे, जीवत्वभाव छे, सुखनो भाव छे, प्रभुतानो
भाव छे, स्वच्छतानो भाव छे–एम अनंतगुणनी शुद्धता भावपणे वर्ते छे.
* अहो! चैतन्यगुणनी प्रशंसा कोई अलौकिक छे! अरे जीव! तारा विद्यमान
गुणनी प्रशंसा संतो तने संभळावे छे, ते सांभळीने तेनो उल्लास लाव...ने
जगतनी लाख जंजाळ छोडीने पण उरमां तेने ध्याव.
* प्रभु! तारी चैतन्यशक्तिना चमकारामां रागनो प्रवेश नथी. जे पर्यायमां राग
छे ते ज समये ते पर्यायमां धर्मात्माने पोताना चैतन्यभावनी विद्यमानता पण
अनुभवाय छे; समये समये मारा सर्वगुण शुद्धताना भावपणे विद्यमान छे–
एम धर्मीने पोतानी भावशक्ति ज्ञानपरिणमनमां भेगी ज भासे छे; ने ते
परिणमनमां रागनो अभाव छे.
* चैतन्यनी परम उर्मिथी कुंदकुंदप्रभुने याद करीने गुरुदेव कहे छे के–अहो,
वीतरागी संतो! तमे तो अमने केवळज्ञान तरफ लई जवा माटे दोर्या छे.
चैतन्यनी अनंतशक्ति बतावीने तमे तो अमने केवळज्ञान तरफ लई जाव छो.
वाह! दिगंबर संतोए जगत उपर महान उपकार कर्यो छे.