छे. एनी अनुभव–वाणी ए ज परमागम छे. ध्रुवतत्त्वनुं ध्येय जेणे बांध्युं ते धर्मी
जीवने भव होता नथी; कदाच एकाद बे भव होय तो ते चैतन्यनी आराधना सहितना
ज होय छे, आराधना पूरी करीने ते अल्पकाळमां मोक्ष पामे छे. –आ रीते मोक्षनुं
मांगळिक कर्युं.
आवी कोतरणी भारतमां पहेलवहेली ज छे. गुरुदेव परमागममंदिरनो महिमा करतां
कहे छे के अहो, ए परमागम–मंदिर जोवा जेवुं छे...भारतमां ते अजोड छे. अंदरमां, ते
परमागमना वाच्यरूप आत्मा छे ते अजोड छे, तेनी रुचिना संस्कार पाडीने तेनो
अनुभव करवा जेवुं छे. आवा अनुभव वगर कोई विषयोमां सुख माने के कोई
शुभरागमां धर्म माने–ए बधाय मिथ्यामार्गमां छे. बापु! तारुं चैतन्यतत्त्व ज्ञानपुंज
छे, तेनो अनुभव करतां रागनां पडदा तूटी जाय छे, चैतन्यपुंजमां रागादिनुं कर्ता–
भोक्तापणुं रहेतुं नथी. आनंदनी लहेरसहित भगवान आत्मा अनुभवमां प्रगट थाय
छे, –एनुं नाम सम्यग्दर्शन छे. अंदर आवा आत्मानी हवा आवे त्यां तो आखुं ध्येय
नथी, ते तो अंदर आनंदनी लहेरनो स्वाद लेतो लेतो मोक्षना मार्गमां प्रभुना पंथे
चाल्यो जाय छे. जगत एने क््यांथी ओळखशे? बापु! आत्माना भान वगर क्षणेक्षणे
जगतना जीवो मोहथी मरी रह्या छे. एनी तो जींदगी आत्माना ज्ञान वगर निष्फळ
चाली जाय छे. आत्मज्ञानपूर्वक देह छूटे तेनो अवतार सफळ छे. देहथी भिन्न चैतन्यना
भावपूर्वक देह छूट्यो, ते हवे अशरीरी सिद्धपदने पामशे.
भरेलुं मारुं सत्त्व छे. आवा स्वादनो नमूनो चाख्या वगर एकला अनुमान द्वारा तेने
जाणी शकाय नहि. स्वसंवेदनवडे नमूनो चाखे त्यारे ज आखो स्वभाव केवो छे तेनी
खरी खबर पडे. अहा, जेना एक अंशमां आटलो आनंद! ने आटली शांति! तेना पूरा
स्वभावनी शी वात! आवा स्वभावनी सन्मुख थईने ज्ञानपरिणतिरूपे जे आत्मा
परिणम्यो, ते आत्मा पोतानी ते शुद्ध ज्ञानपरिणतिमां तन्मय छे, एटले
रागादिभावोमां