Atmadharma magazine - Ank 366
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 11 of 57

background image
: ८ : आत्मधर्म : चैत्र : २५००
ते तन्मय नथी, तेथी तेने रागादिनुं कर्ता–भोक्तापणुं नथी.
जेटलो शुद्धभाव प्रगट्यो तेनी अपेक्षाए तेने विकारनुं अकर्ता–अभोक्तापणुं
छे; पण हजी पर्यायमां साधकने जेटला रागादि बाधकभावो छे तेटलुं कर्ता–
भोक्तापणानुं अशुद्ध परिणमन छे, ने तेटलो पोतानो अपराध छे एम पण धर्मी
जाणे छे. एक आत्माना परिणमनमां, एकसाथे शुद्धता ने अशुद्धता, एकसाथे
अकर्तापणुं ने कर्तापणुं, एकसाथे सुख ने दुःख,–ए वात अंर्तद्रष्टिना अनेकांतन्याय
वडे ज समजाय तेवी छे. अहो, आत्मतत्त्व आश्चर्यकारी छे के एक तरफथी जोतां ते
एकला शांत चैतन्यरसमां ज लीन देखाय छे, ने बीजा तरफथी तेमां अशांति पण
देखाय छे.
जो एकली शांति ज होय, ने अशांति सर्वथा होय ज नहि तो पूर्णदशा थई गई,
एटले साधकदशा न रही, नय पण न रह्या.
जो पोतानी पर्यायमां एकली अशांति ज देखाय, ने शांति जराय न वेदाय, तो
त्यां साधकदशा ज नथी, त्यां तो अज्ञानदशा छे; तेने पण साचा नय होतां नथी.
साधकदशा ज एवी विचित्र छे के जेमां एक साथे शांति अने अशांति बंने
भावो वर्ते छे, ने साचा नयथी धर्मी तेने बराबर जाणे छे. मारी परिणति मोहथी
मलिन छे एम पण ते जाणे छे, ने मोह वगरना सम्यक्त्वादि शुद्धभावो पण प्रगट्या
छे–तेने पण धर्मी जाणे छे. अने ते बंने भावोनुं वेदन पण पोतानी पर्यायमां छे. ज्यारे
शुद्धज्ञानपरिणाम साथे आत्माने अभेद करीने जोवामां आवे छे. त्यारे तेमां रागादि
कोई भावोनुं कर्ता–भोक्तापणुं नथी. आवी अनुभूतिने ‘सर्वविशुद्धज्ञान’ कहेवाय छे,
अने ते मंगळ छे.
परमागममां वीतरागरसनां अमृत वरसी रह्या छे
राजकोटमां गुरुदेवना प्रवचनमां सवारे समयसारनो सर्वविशुद्धज्ञान–अधिकार
वंचातो हतो, ने बपोरे पंचास्तिकायनी १७२ मी गाथा वंचाती हती. एककोर
ज्ञानरसनुं घोलन, ने बीजीकोर वीतरागताना रसनुं घोलन जिनवाणीमांथी नीतरतुं
हतुं. राजकोटमां एकसाथे बे धोध आव्या–एक तो पाणीनो धोध आव्यो, ने बीजो
जिनवाणीना अमृतनो धोध आव्यो...अशांत तरसी जनता तृप्त–तृप्त थई...अरे,
अमृतना स्वाद पासे लोको पाणीने तो जाणे भूली गया...जुगजूनी अशांति तो कोण
जाणे क््यां भागी