भोक्तापणानुं अशुद्ध परिणमन छे, ने तेटलो पोतानो अपराध छे एम पण धर्मी
जाणे छे. एक आत्माना परिणमनमां, एकसाथे शुद्धता ने अशुद्धता, एकसाथे
अकर्तापणुं ने कर्तापणुं, एकसाथे सुख ने दुःख,–ए वात अंर्तद्रष्टिना अनेकांतन्याय
वडे ज समजाय तेवी छे. अहो, आत्मतत्त्व आश्चर्यकारी छे के एक तरफथी जोतां ते
एकला शांत चैतन्यरसमां ज लीन देखाय छे, ने बीजा तरफथी तेमां अशांति पण
देखाय छे.
मलिन छे एम पण ते जाणे छे, ने मोह वगरना सम्यक्त्वादि शुद्धभावो पण प्रगट्या
छे–तेने पण धर्मी जाणे छे. अने ते बंने भावोनुं वेदन पण पोतानी पर्यायमां छे. ज्यारे
शुद्धज्ञानपरिणाम साथे आत्माने अभेद करीने जोवामां आवे छे. त्यारे तेमां रागादि
कोई भावोनुं कर्ता–भोक्तापणुं नथी. आवी अनुभूतिने ‘सर्वविशुद्धज्ञान’ कहेवाय छे,
अने ते मंगळ छे.
ज्ञानरसनुं घोलन, ने बीजीकोर वीतरागताना रसनुं घोलन जिनवाणीमांथी नीतरतुं
हतुं. राजकोटमां एकसाथे बे धोध आव्या–एक तो पाणीनो धोध आव्यो, ने बीजो
जिनवाणीना अमृतनो धोध आव्यो...अशांत तरसी जनता तृप्त–तृप्त थई...अरे,
अमृतना स्वाद पासे लोको पाणीने तो जाणे भूली गया...जुगजूनी अशांति तो कोण
जाणे क््यां भागी