: चैत्र : रप०० आत्मधर्म : ९ :
गई! वाह रे वाह चैतन्यतत्त्व! ज्यां तारा शांतरसनुं घोलन चालतुं होय, ज्यां
धोधमार शांतरस वरसतो होय त्यां जगतनुं कोई दुःख केम रहे? राग–द्वेषमां
दुःख छे, वीतरागतामां तो मधुरी शांति छे–
–तेथी न करवो राग जरीये क््यांय पण मोक्षेच्छुए,
वीतराग थईने ए रीते, ते भव्य भवसागर तरे.
वाह रे, वाह! जुओ तो खरा कुंदकुंदप्रभुनी मीठी वाणी! एकलो
वीतरागरस एमां नीतरी रह्यो छे.
साक्षात् मोक्षमार्गनो सार कहो, के परमागमनुं तात्पर्य कहो, ते
वीतरागभाव ज छे. खरेखर वीतरागपणुं ज साक्षात् मोक्षमार्गमां अग्रसर छे.
अने तेनी पासे तो अरिहंतादिनो राग ते पण अंतरना दाहनुं कारण छे. –आम
समजीने साक्षात् मोक्षनो अभिलाषी महात्मा, चैतन्यतत्त्वना वीतरागी अमृतमां
लीन थईने, सघळा प्रत्येना समस्त रागने छोडे छे; ए रीते दुःखथी बळबळता
भवसागरने पार करीने ते उत्तम मोक्षसुखने अनुभवे छे.
अहो, आवुं वीतरागपणुं जयवंत वर्तो. ते त्रणलोकमां साररूप छे.
‘तीन भुवनमें सार, वीतराग विज्ञानता. ’
अरिहंतादि परद्रव्य प्रत्येनी भक्तिनो जराक पण राग रही जाय, तो ते
साक्षात् मोक्षने अंतराय करनार छे–एम आचार्यदेवे १७१ मी गाथामां प्रसिद्ध
कर्युं छे. ने पछी आ १७२ मी गाथामां समस्त राग छोडीने वीतरागतानो उपदेश
आप्यो छे.
अरे, सूक्ष्मराग वडे पण जीवनी परिणति कलंकित थाय छे; रागना
अंगारामां सेकातो जीव दुःखी थाय छे. अरे, रागमां ते शाति केम होय? रागना
सूक्ष्मवेदनने पण धर्मीजीव दुःख अने बळतरा जाणे छे; –पछी भले ते राग
भगवान प्रत्येनो होय. अरे, आ वात कोने बेसे? के अंतरमां रागथी पार
चैतन्यनी वीतरागी शांतिनो स्वाद जेणे चाख्यो होय, तेने रागमां बळतरा अने
दुःख ज लागे. अरे, राग अने वीतरागताना स्वाद वच्चेनो तफावत पण जे न
जाणे ते रागथी भिन्न चैतन्यशांतिने क्यांथी अनुभवशे? अने एवा अनुभव
वगर परमार्थ–सिद्धभक्ति पण होती नथी.