ऊभराती जनमेदनी एम प्रसिद्ध करती हती के अव्यक्तपणे पण जगतने
वीतरागता वहाली छे. ज्यां राग–द्वेषनी कोई वात न हती एवो आ
एम प्रसिद्ध करे छे के वीतरागता ज सौथी श्रेष्ठ छे ने ते ज जगतने माटे ईष्ट छे.
आवी वीतरागतारूप समभावने वीरप्रभुए आजे धारण कर्यो–तेमने तेवा ज
भावथी अमारा नमस्कार छे.
वैराग्यनी शीतळ लहेरीओनी कोई अनेरी ठंडक अनुभवशे.
अमे बाह्य अने अंतरमां निर्ग्रंथ थईने तीर्थंकरोना मुनिमार्गमां विचरशुं?
त्यां सातमुं गुणस्थान प्रगट्युं, मन: पर्ययज्ञान प्रगट्युं. अहो! ज्यां शत्रु–मित्र प्रत्ये
राग–द्वेष नथी, निर्भयपणे जंगलना वाघसिंह वच्चे पण आत्माना ध्यानमां लीनपणे
अडोल रहीए–एवी धन्य दशा क्यारे आवशे?
छे–एवा धर्मीजीव तेमां ठरवानी भावना भावे छे. कोई निंदा करो के प्रशंसा करो,
तेनाथी अमारी हीनता के अधिकता नथी. अमे तो राग–द्वेष रहित अमारा चैतन्यना
समरसनुं पान करशुं. ‘राग आग दहे सदा, तातें समामृत सेईए. ’ अमे तो अमारा
ध्रुव चिदानंदस्वरूपमां आसन लगावीने वीतरागपणे बेठा छीए–आवी अद्भुत
योगीदशा मुनिओने होय छे. स्वर्गनां अमृतभोजन पण जेनी पासे तुच्छ छे एवा