Atmadharma magazine - Ank 366
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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: १२ : आत्मधर्म : चैत्र : २५००
तीर्थंकर प्रभुनी दीक्षानो महोत्सव एटले तो बस! मोक्षनो ज महोत्सव!
चारित्रआश्रमना विशाळ प्रांगणमां नीचे–उपर अगाशीमां के खोरडा उपर सर्वत्र
ऊभराती जनमेदनी एम प्रसिद्ध करती हती के अव्यक्तपणे पण जगतने
वीतरागता वहाली छे. ज्यां राग–द्वेषनी कोई वात न हती एवो आ
वीतरागतानो महोत्सव २५–३० हजार माणसो उत्सुकताथी नीहाळी रह्या हता, ते
एम प्रसिद्ध करे छे के वीतरागता ज सौथी श्रेष्ठ छे ने ते ज जगतने माटे ईष्ट छे.
आवी वीतरागतारूप समभावने वीरप्रभुए आजे धारण कर्यो–तेमने तेवा ज
भावथी अमारा नमस्कार छे.
प्रभुना दीक्षाप्रसंग बाद ते दीक्षावनमां ज वीतरागी मुनिदशा प्रत्ये अत्यंत
भक्तिथी गुरुदेवे जे वैराग्यभावना व्यक्त करी–ते अहीं वांचीने आपनुं चित्र पण
वैराग्यनी शीतळ लहेरीओनी कोई अनेरी ठंडक अनुभवशे.
दीक्षावनमां वैराग्यरसझरतुं प्रवचन
भगवान महावीरप्रभुना दीक्षाकल्याणक प्रसंगे पोतानी वैराग्यभावना
मलावतां गुरुदेव कहे छे के अहो! अमने एवो अपूर्व अवसर क्यारे आवशे? क््यारे
अमे बाह्य अने अंतरमां निर्ग्रंथ थईने तीर्थंकरोना मुनिमार्गमां विचरशुं?
भगवानने आत्मानुं ज्ञान तो पूर्वे अनेक भवथी हतुं; आजे प्रभु संसारथी
विरक्त थईने मुनि थया, ने दीक्षा लईने स्वरूपमां अप्रमत्त शुद्धोपयोगी थईने ठर्या,
त्यां सातमुं गुणस्थान प्रगट्युं, मन: पर्ययज्ञान प्रगट्युं. अहो! ज्यां शत्रु–मित्र प्रत्ये
राग–द्वेष नथी, निर्भयपणे जंगलना वाघसिंह वच्चे पण आत्माना ध्यानमां लीनपणे
अडोल रहीए–एवी धन्य दशा क्यारे आवशे?
–आवी भावना कोण भावे? जेणे भिन्न आत्माना चैतन्यना आनंदस्वादने
चाख्यो होय. दर्शनमोहनो नाश करीने देहथी भिन्न चिदानंदतत्त्व जेणे अनुभवमां लीधुं
छे–एवा धर्मीजीव तेमां ठरवानी भावना भावे छे. कोई निंदा करो के प्रशंसा करो,
तेनाथी अमारी हीनता के अधिकता नथी. अमे तो राग–द्वेष रहित अमारा चैतन्यना
समरसनुं पान करशुं. ‘राग आग दहे सदा, तातें समामृत सेईए. ’ अमे तो अमारा
ध्रुव चिदानंदस्वरूपमां आसन लगावीने वीतरागपणे बेठा छीए–आवी अद्भुत
योगीदशा मुनिओने होय छे. स्वर्गनां अमृतभोजन पण जेनी पासे तुच्छ छे एवा