: १८ : आत्मधर्म : चैत्र : २५००
४ ईन्द्र–पण हवे तो फकत छ महिना ज तेओ आपणा आ अच्युतस्वर्गमां रहेवाना छे.
तो छ महिना आपणे तेमना श्रीमुखथी आत्माना अनुभवनी चर्चा
सांभळवानो लाभ लईए.
४. ईन्द्राणी–हा देव तमारी वात उत्तम छे. आवा धर्मात्मानो संग जगतमां उत्तम छे. ते
कोई महा भाग्ये ज मळे छे. माटे तेनो लाभ लेवो जोईए.
५ ईन्द्र–प्रभो, आत्मानी अनुभूतिनुं स्वरूप शुं छे? ते कहो.
(अच्युतस्वर्गमां बिराजमान महावीर प्रभुनो जीव जवाब आपे छे–)
* अहो, अनुभूतिनी गंभीरता अद््भुत छे. हवे देवो सांभळो!
आत्मस्वभावं परभावभिन्नं, आपूर्णमाद्यंत विमुक्त एक;
विलीन संकल्प–विकल्पजालं, प्रकाशयन्, शुद्धनयोभ्युदेति.
परद्रव्यथी ने परभावथी भिन्न ज्ञानस्वरूप आत्मानी अनुभूति ते सम्यग्दर्शन छे.
५ ईन्द्राणी–प्रभो, आवुं सम्यग्दर्शन क्यारे पमाय?
* जीवने ज्यारे पोताना स्वरूपनी साचेसाची लगनी लागे छे, ने आत्मशांतिनी
खरेखरी धगश जागे छे त्यारे, ते रागादि अशांत भावोने अने चैतन्यनी
शांतिने अत्यंत जुदा जाणे छे, ने त्यारे ते सम्यग्दर्शन पामे छे.
६. ईन्द्र–प्रभो, आवुं सम्यग्दर्शन थतां आत्मामां शुं थाय?
* अहो, त्यारे तो आत्मानुं आखुं जीवन ज पलटी जाय. जाणे के आत्मा मरेलामांथी
जीवतो थयो होय! –एम अलौकिक आनंदथी भरेलो चैतन्यभाव प्रगटे छे...
तेनी साथे अनंत गुणोनो बगीचो खीली ऊठे छे....एवी दशा ए ज आत्मानुं
साचुं जीवन छे.
६. ईन्द्राणी प्रभो! आपना श्रीमुखथी सम्यग्दर्शननो अद्भुत महिमा सांभळीने अमने
घणो आनंद थाय छे.
७ ईन्द्र–अहा, सम्यग्दर्शन ए ज साचुं आनंदकारी छे; एना जेवुं उत्तम जगतमां बीजुं
कोई नथी.
७ ईन्द्राणी–प्रभो, शुं आ स्त्रीपर्यायमां अमने पण सम्यग्दर्शन थाय?