Atmadharma magazine - Ank 366
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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: चैत्र : रप०० आत्मधर्म : २१ :
सिद्धार्थ महाराजानी राजसभामां
भेदज्ञाननी सरस चर्चा
सोनगढमां परमागम–मंदिर पंचकल्याणक–प्रतिष्ठा
महोत्सवमां कल्याणकनी शरूआतमां (फागण सुद सातमे)
सिद्धार्थ महाराजानी राजसभानुं द्रश्य थयुं हतुं, तेमां जे
तत्त्वचर्चा थई ते वांचीने आपने पण आनंद थशे.
सिद्धार्थ राजा:–अहा, आजनी आ राजसभा कोई अद्भुत लागे छे. आजे तो अंतरमां
कोई एवी प्रसन्नता अनुभवाय छे के जाणे रत्नत्रयधर्मना अंकरा फूटी रह्या
होय! अहा, जाणे आकाशमांथी कोई कल्पवृक्ष ऊतरीने मारा आंगणे आवी रह्युं
होय!
१. सभाजन:–महाराज! आपनी वात सांभळीने अमने पण घणी प्रसन्नता थाय छे.
ने आपने प्रार्थना करीए छीए के आजे राजसभामां बीजा बधा कार्यो मुलतवी
राखीने आपना श्रीमुखे धर्मनी चर्चा ज सांभळीए.
सिद्धार्थ: – वाह, धर्मचर्चाथी उत्तम बीजुं शुं होय? खुशीथी आजे सौ धर्मचर्चा करो.
२ सभाजन:–महाराज! आ संसारमां आवा विचित्र महोत्सव प्रसंगे पण ज्ञानी
रागथी अलिप्त केम रही शकता हशे!
सिद्धार्थ–गमे तेवा विचित्र प्रसंग वखते पण ‘हुं चैतन्यभाव छुं’ एवी स्वतत्त्वनी बुद्धि
धर्मीने वर्ते ज छे, ने ते ज्ञानमां बीजा कोई अंशने भेळवता नथी. माटे ज्ञानीनुं
ज्ञान सर्वदा अलिप्त रहे छे.
३ सभाजन:–हे स्वामी! साधर्मीजनोनी आवी सभा देखीने आनंद थाय छे. मुमुक्षुने
साधर्मीवात्सल्य केवुं होय, ते कहो!
सिद्धार्थ:–अहा, जेना देव एक, जेना गुरु एक, जेनो सिद्धांत एक अने जेनो