: २६ : आत्मधर्म : चैत्र : २५००
ईन्द्रसभा (२)
(सोनगढमां परमागममंदिर प्रतिष्ठा–महोत्सव वखते (गर्भकल्याणक) प्रसंगे
ईन्द्रसभामां थयेल चर्चा: फागण सुद ८ सवारे)
(ईन्द्र १)–देवो! जगतमां सारभूत वस्तु वीतराग–विज्ञान ज छे. एवा वीतराग
विज्ञाननो जगतने संदेश देवा माटे ज तीर्थंकरोनो अवतार छे.
(ईन्द्राणी १)–हा! हवे भरतक्षेत्रमां २४ मा तीर्थंकर अवतरशे, ने जगतने मोक्षनो
संदेश आपशे.
(ईन्द्र २)–आपणुं आ ईन्द्रपद पण खरेखर सारभूत नथी; आत्मानुं अतीन्द्रिय सुख
ज सारभूत छे.
जीवने नथी कंई ध्रुव, ध्रुव, उपयोग–आत्मक जीव छे.
(ईन्द्र ३)–अहा, चैतन्यनी अनुभूति पासे तो शुभराग पण असार अने दुःखरूप
लागे छे.
(ईन्द्राणी ३)–तद्न सत्य छे. आपणने जे चैतन्यसुखनो स्वाद आवे छे एवो स्वाद
आ ईन्द्रपदना वैभवमां कदी नथी आवतो.
(ईन्द्र ४)–अरे, तीर्थंकरप्रकृति पण ज्यां सारभूत नथी त्यां बीजानी तो शी वात!
(ईन्द्राणी ४)–जो तीर्थंकरप्रकृति पण सारभूत नथी, तो तीर्थंकरनो आटलो बधो
महिमा केम करीए छीए?
(ईन्द्र ५)–सांभळो, तीर्थंकरो आपणने वीतरागरत्नत्रयनो उपदेश आपीने,
भवसमुद्रथी तारे छे, तेथी ज तेमनो महिमा करीए छीए.
(ईन्द्राणी ५) तद्न सत्य छे; आपणे रागने माटे तीर्थंकरने नथी मानता; आपणे तो
वीतरागभाव माटे ज तीर्थंकरने मानीए छीए.