: ४६ : आत्मधर्म : चैत्र : २५००
देवगुरुधर्मनी छायामां आनंदथी
पूरो थयेलो महान उत्सव
अहो, जगतने चैतन्यहितनो परम ईष्ट संदेश देनारा एवा जिनेन्द्रभगवंतोनो
पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव आनंद–उल्लासथी आपणे सौए उजव्यो. प्रभुना
पंचकल्याणकनो महोत्सव एटले सर्वे जीवोने माटे (शांतिनो महोत्सव, शांतिनो आ
महोत्सव खरेखर अनेरी शांतिपूर्वक उजवायो. जगत ज्यारे भडके बळतुं हतुं. त्यारे
वीतरागदेवनी छायामां आवेला भव्यजीवो सुवर्णपुरीमां अनेरी ठंडक अनुभवता हता.
आपणा जिनेन्द्रभगवंतो तो चैतन्यनी अतीन्द्रिय शांतिरूपे परिणमेला छे. जेम
ठंडकना पिंडरूप बरफनी नजीक पण ठंडक लागे छे तेम अतीन्द्रिय शांतिना पिंडला एवा
देव–गुरुनी नीकटतामां आपणे पण एवी ठंडक अनुभवीए छीए. अहो, महा भाग्य छे
के जगतमां श्रेष्ठ एवा जिन भगवान आपणने मळ्या, ने ए भगवाननो मार्ग श्री
गुरुदेवे आपणा माटे खुल्लो कर्यो. आवो रे आवो! जगतना बधा जीवोने माटे आ
मंगल–मार्ग खुल्लो छे.
अहो कुंदकुंदप्रभु भगवान! कहानगुरु द्वारा आपनुं शासन आजे पराकाष्टाए
पहोंची रह्युं छे. असंकुचितपणे विकसी रहेलुं आपनुं शासन जोतां अमने महान आनंद
थाय छे, ने विदेहधामनी ए मंगलवात याद आवे छे के ‘आ राजकुमारना जीव
भरतक्षेत्रमां जशे ने कुंदकुंदाचार्यना शासननी महान प्रभावना करशे. ’
फागण सुद १३....एटले अष्टाह्निकानो शाश्वत मंगल दिवस! वहेली सवारमां
पावापुरीमां बिराजमान वर्धमानतीर्थंकरना दर्शन कर्या....संसारदशामां प्रभुना आ
छेल्ला दर्शन हता...थोडी ज वारमां प्रभु देहातीत एवा सिद्धपदने पाम्या. ईन्द्रोए
मोक्षकल्याणक उजव्यो.
अहो! जिनेन्द्रभगवंतोना पंचकल्याणक पूर्ण थया. भगवंतोना कल्याणकारी
धर्मचक्रथी सर्वत्र शांति प्रसरी. जगतना महान कोलाहलनी वच्चेय सोनगढमां
जिनभगवंतोना चरणमां परम शांति वर्तती हती.