: वैशाख: २५०० आत्मधर्म : ११:
हिंसानो संबंध नथी. एटले परजीवनुं जीवन के मरण तेना आयुष्यअनुसार थाऔ,
पण जे जीवने अकषाय–वीतरागभाव छे ते जीव अहिंसक छे, अने जे जीवने सकषाय–
रागादिभाव छे. ते जीव हिंसक छे. आ भगवान वीरनाथे जैनशासनमां कहेलो अहिंसा
अने हिंसानो महान सिद्धांत छे. तेमां जे रागादि हिंसा छे ते अधर्म छे, अने
वीतरागभावरूप जे अहिंसा छे ते परमधर्म छे. आवा अहिंसा धर्मनो उपदेश ते सर्वे
जीवोने माटे हितकारी होवाथी, ते ज ‘ईष्ट–उपदेश’ छे, ते ज भगवान महावीरनो
उपदेश छे.
वीतरागभावरूप अहिंसा ते ईष्ट फळवाळी छे,
ने मोक्ष ते ईष्ट छे.
रागादिभावरूप हिंसा ते अनीष्ट फळवाळी छे,
ने संसार ते अनीष्ट छे.
हवे आवी अहिंसा तथा हिंसानुं स्वरूप वधु स्पष्ट समजवा
माटे द्रष्टांत लईए:–
एक ज जंगलमां ४० लूटाराओ रहेता हतां; तेओ कू्रर परिणामी अने
मांसाहारी हता. जंगलमां शिकारनी शोधमां तेओ फरता हतां.
एवामां एक धर्मात्मा–संत ते जंगलमांथी पसार थता हता; आत्माने जाणनारा
ने वीतरागभावमां महालनारा ते संत, दुष्ट लूटाराओनी नजरे पड्या, एटले तेमने
मारी नांखवा अने तेमनुं मांस खावा ते लूटाराओ पाछळ पड्या.
धर्मात्मा–संत–मुनि तो उपसर्ग समजीने शांतिथी ध्यानमां बेसी गया.
लूटाराओ तेमने पकडीने मारवानी तैयारीमां हता....पण–
ए ज वखते त्यां एक राजा आवी चडयो; राजा सज्जन हतो ने बहादूर हतो.
मुनिने अने लूटाराओने देखीने ते तरत परिस्थिति समजी गयो. दुष्ट लूटाराओना
पंजामांथी मुनिनी रक्षा करवा तेणे लूटाराओने घणा समजाव्या के आ निर्दोष
धर्मात्माने हेरान न करो. पण मांसना लोभी दुष्ट लूटाराओ कोई रीते मान्या नहि, ने
तेमणे तो मुनिने मारवानी तैयारी करी.
त्यारे राजाथी रहेवायुं नहि; तेणे मुनिनी रक्षा करवा लूटाराओनो सामनो कर्यो,
चालीस लूटाराओ पण एकसाथे राजा उपर तूटी पड्या. पण बहादूर राजाए ते बधा