: १४ : आत्मधर्म : वैशाख : २५००
हिंसा–अहिंसानो आ अबाधित नियम महावीर प्रभुए जैनसिद्धांतमां केवी
सुंदर रीते समजाव्यो छे? ते जुओ–
अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवति अहिसेति।
तेषामेवोत्पत्तिः हिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः।।४४।।
रागादिनो ज्यां अंश नहीं, बस! ते अहिंसा जाणवी;
रागादिनी जे उत्पत्ति हिंसा जरूर ते जाणवी.
जिनवरकथित आगम तणो रे! आ ज टूंको सार छे,
पुरुषार्थ सिद्धि–उपायमां अमृतसूरिनुं वचन छे.
जीवमां रागादिभावोनी उत्पत्ति न थवी ते खरेखर अहिंसा छे; अने रागादि
भावोनी उत्पत्ति ते हिंसा छे; आ जिनागमनो सार छे.
ज्यां कषायसहितयोगथी द्रव्य–भावरूप प्राणोनो घात छे त्यां चोक्कस हिंसा छे.
जे सत्पुरुषने योग्यआचरण छे अने रागादि कषायनो अभाव छे तेने, मात्र
प्राणघात वडे कदी हिंसा थती नथी.
अने ज्यां रागादिकषायवश प्रमादप्रवृत्ति छे त्यां, जीव मरो के न मरो तोपण,
चोक्कस हिंसा छे. केमके
सकषायजीव, कषाय वडे प्रथम पोते पोताना आत्माना चैतन्य–प्राणने तो हणे
ज छे,–पछी बीजा जीवोनी हिंसा तो थाय के न थाय.
परवस्तुना कारणे जीवने सूक्ष्म पण हिंसा थती नथी; पोताना कषाय भावथी ज
हिंसा थाय छे.
हिंसा–अहिंसा संबंधी आ वस्तुस्वरूपनो नियम छे, अने आ जैनसिद्धांतनुं टूंकुं
रहस्य छे.
अज्झवसिदेण बंधो सते मारेउ मा व मारेउ।
एसो बंधसमासो जीवाणं णिच्छयणयस्स।।२६२।।
मारो न मारो जीवने छे बंध अध्यवसानथी;
–आ जीव केरा बंधनो संक्षेप निश्चयनय थकी.