: २४ : आत्मधर्म : वैशाख : २५००
ते धर्म छे, ते मोक्षमार्ग छे. अने ते चेतनामां रागादि अशुद्धपरिणमन ते हिंसा
छे, ते संसारनुं कारण छे.
जीवना पांच भावमां उतारीए तो–
* उपयोग ते परिणामिकभाव छे.
* उपयोगनुं शुद्ध परिणमन ते क्षायिकादि भावरूप छे.
* रागादि भावो ते औदयिक भाव छे.
आ रीते उपयोगने अने रागने भावथी भिन्नता छे.
नव तत्त्वमां लईए तो–
* उपयोग ते जीव अने संवर–निर्जरा–मोक्षतत्त्वमां आवे छे.
* रागादिभावो आस्रव अने बंधतत्त्वमां आवे छे.
आ रीते उपयोग अने राग ए बंने तत्त्वो भिन्न छे.
न्याय–युक्तिथी जोईए तो–
* उपयोग साथे आत्मानी समव्याप्ति छे.
* रागादि साथे आत्मानी समव्याप्ति नथी.
–माटे न्यायथी उपयोग अने रागनी भिन्नता ज सिद्ध थाय छे; उपयोगनी
अने रागनी एकता कोई रीते सिद्ध थती नथी.
अनुभवथी जोतां पण–
रागादि वगरना उपयोगस्वरूपे जीव अनुभवमां आवे छे. पण उपयोग
वगरनो जीव कदी अनुभवमां आवतो नथी.
–आ रीते धर्मीनी अनुभूतिमां उपयोग अने रागनी भिन्नता छे; रागथी जुदो,
उपयोगस्वरूप आत्मा ज अनुभूतिमां प्रकाशे छे.
एगो मे सस्सदो अप्पा णाणदंसणलक्खणो।
सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा।।
मारो सुशाश्वत एक दर्शन–ज्ञानलक्षण जीव छे;
बाकी बधा संयोगलक्षण भाव मुजथी बाह्य छे.