Atmadharma magazine - Ank 367
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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: ३० : आत्मधर्म : वैशाख : २५००
आत्मानुं स्वरूप समज्यो; ते केवुं स्वरूप समज्यो? तेनी आमां वात छे. अहो,
मारा स्वसंवेदनथी प्रत्यक्ष एवो हुं श्रीगुरुना उपदेशथी मारुं स्वरूप समज्यो,
मारा परमेश्वरने में मारामां ज देख्यो. हुं चेतनास्वरूपथी एकपणे ज मने
अनुभवुं छुं. मारी आ अनुभूतिमां भेदना विकल्परूप कारको नथी, एटले
अशुद्धता नथी; शुद्ध चैतन्यभावरूपे ज हुं मने अनुभवुं छुं.
४८. अरे, एकवार अंतरनी जिज्ञासाथी सांभळे तो जीवनी जीवननी दिशा फरी
जाय–एवी सुंदर चैतन्यनी वात संतो संभळावे छे. रागथी पार चिदानंदतत्त्व
लक्षगत थतां परना प्रेमनी दिशा छूटी जाय ने स्वतत्त्व तरफ तेनी रुचि झुकी
जाय. एकवार सांभळतां अंदर राग अने ज्ञाननी भिन्नताना घा लागी जवा
जोईए. बापु! एकवार अपूर्व महिमा लावीने तारा आत्मानी वात सांभळ तो
खरो.
४९. अहो, मारी चैतन्यनिधिने, श्रीगुरुना उपदेशथी सावधान थईने हवे में देखी.
मारा निधान मारा हाथमां आवी गया. अनादिनो अज्ञानी होवा छतां,
ज्ञानीगुरुना उपदेशथी क्षणमां निजस्वरूप समजीने प्रतिबुद्ध थई गयो,
भमरीनो डंख लागतां जेम ईयळ भमरी बनी जाय, तेम श्रीगुरुना शुद्धात्म–
उपदेशनी चोट लागतां अप्रतिबुद्ध आत्मा शीघ्र प्रतिबुद्ध थई गयो. अहो,
आनंदनो सागर आत्मा,–ज्यां श्रीगुरुए संभळाव्यो त्यां तेना प्रेमनो रंग चडी
गयो, एवो रंग चडी गयो के रागनी प्रीति हवे रहेती नथी. एक घाए राग
अने ज्ञानना बे कटका जुदा थई गया; अने भान थयुं के ‘आ रह्यो हुं चेतनरूप
भगवान! ’
५०. जेम भूलाई गयेलुं सोनुं पोताना हाथमां न देखीने जीव प्रसन्न थाय, तेम
अनादिथी भूलाई गयेला पोताना परमेश्वर आत्माने पोतामां ज देखीने जीव
आनंदित थयो,–प्रसन्न थयो, के ‘अहो! हुं परमेश्वर आ मारामां ज रह्यो!
मारा स्वसंवेदनमां हुं प्रतापवंत वर्तु छुं. ’
५१. अहो, मारुं चैतन्यतत्त्व, पोतानी प्रभुताथी पूरुं छे; मारी प्रभुता कोई संयोग के
रागने लीधे नथी; स्वयं पोताना स्वभावथी ज हुं परमेश्वर छुं.–आवुं
स्वसंवेदन धर्मीने चोथास्थानथी थई गयुं होय छे.