: वैशाख : २५०० आत्मधर्म : ३१ :
५२. भगवान! तारी प्रभुतानी वात होंशथी सांभळ तो खरो. प्रभुताने जाणीने
तेनो उल्लास करतां तने रागनो उल्लास छूटी जशे ने तारा भवनां बंधन तूटी
जशे.
५३. रागनो जेने रस छे तेने आत्मा देखातो नथी; पण भेदज्ञानी जीव रागने जुदो
पाडीने शुद्धचैतन्यरसनो स्वाद लईने स्वसंवेदनमां आत्माने देखे छे. भेदज्ञानना
बळे ते शरीरथी, कर्मथी ने रागथी अत्यंत भिन्न चैतन्यतत्त्वरूपे पोते पोताने
अनुभवे छे. ते चैतन्यनी किंमत पासे राग वगेरेनी कांई ज किंमत नथी.
५४. चैतन्यना स्वसंवेदनथी ज्यां ज्ञाननी मंगलबीज ऊगी त्यां पूर्णता थतां वार न
लागे; जेम बीज ऊगी ते वधीने तेर दिवसमां पूनम थाय छे, तेम आत्मसन्मुख
थतां शुद्धोपयोगनी बीज ऊगी ते वृद्धिगत थईने अल्पकाळमां केवळज्ञान थाय छे.
५५. वैशाख सुद बीजना मंगलप्रवचनमां चैतन्यनी प्रसन्नताथी गुरुदेव कहे छे के
अहो! ज्यां ज्ञान अने रागनुं भेदज्ञान कर्युं के ज्ञानवेदन ते हुं, ने रागादि ते हुं
नहीं,–आम भेदज्ञान करतां स्वसंवेदनमां पोते पोताने प्रत्यक्ष थयो; ने
परिणमनचक्र मोक्ष तरफ चाल्युं. ते ज साधकभावनो अपूर्व महोत्सव छे.
५६. बापु! आवुं मनुष्यपणुं अने आवो सत्संग पामीने, चैतन्यनो अनुभव करवा
जेवो छे, ते काम पहेलांं कर.
५७. धर्मीजीव स्वसंवेदनथी पोताने एम अनुभवे छे के हुं तो चैतन्यज्योतिरूप
आतमराम छुं. धर्मात्माना उपदेशे एना मोहने छेदवा माटे रामबाण जेवुं काम
कर्युं.
५८. धर्मात्मागुरुए जेवुं कह्युं तेवुं स्वरूप लक्षमां पकडीने पोते अनुभव्युं; ते अनुभव
वखते मति–श्रुतज्ञान पण अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष थया छे. मति–श्रुतज्ञान एकांत
परोक्ष नथी, स्वसंवेदनमां ते प्रत्यक्ष पण छे. आवी प्रत्यक्षज्ञानकळा ते मोक्षनुं
साधन छे.
५९. सम्यक्त्व तो आत्मामां एकत्वबुद्धि करीने निर्विकल्प–प्रतीतरूप वर्ते छे; तेमां
प्रत्यक्ष के परोक्ष एवा भेद नथी धर्मीने ज्ञाननो उपयोग अंदर हो के बहार,