: ३२ : आत्मधर्म : वैशाख : २५००
अशुभमां हो के शुभमां, पण सम्यक्त्व तो निरंतर आत्मप्रतीतिरूपे वर्ती
रह्युं छे.
६०. धर्मीनुं मति–श्रुतज्ञान केवळज्ञानने बोलावे छे–एटले के अंदरना स्वसंवेदन
वडे ज्ञानस्वभावने प्रत्यक्ष करीने तेणे केवळज्ञान साथे संधि करी छे.
केवळज्ञानस्वभाव ते अवयवी छे, ने मति–श्रुत तेनो अवयव छे. आवुं ज्ञान
ज्यां प्रगट्युं त्यां ज्ञानबीज ऊगी, ते हवे केवळज्ञानरूप पूर्णिमा थये छूटको.
६१. आज तो आनंदनो दिवस छे ने आनंदना जमण पीरसाय छे,–एटले हजारो
श्रोताजनो उल्लासभावे ते वधावी रह्या छे. सम्यग्ज्ञाननी बीज आत्माना
अपूर्व आनंदसहित प्रगटे छे.
६२. बापु! चैतन्यतत्त्वनी आवी वात सांभळवा मळवी ते महान दुर्लभ छे; ते
तने महाभाग्ये मळी छे, माटे तेनी दरकार करीने आत्मानुं कल्याण करी लेजे.
आत्माना हित माटे तने आ सुअवसर सुलभ थयो छे...तेने सफळ करजे.
६३. वैशाख सुद त्रीजे भावनगर–जिनमंदिरमां भगवाननी प्रतिष्ठाने पांचमुं वर्ष
बेठुं. ते ज दिवसे गुरुदेव मुंबईथी भावनगर पधार्या, अने प्रवचनमां
समयसारनो १३८मो कळश वांचतां कह्युं के–
आत्मा चैतन्यतत्त्व पोते आनंदनुं धाम छे. आवा आत्माना भान वगर,
धनना ढगला वच्चे पण जीवो अशांतिने भोगवीने चारगतिमां रखडे छे.
शुभाशुभभाव करीने जीवे चारे गतिमां अवतार कर्या छे; मोटो राजा पण
थयो ने गरीब भीखारी पण थयो,–पण चैतन्यनी शांति तेने क््यांय मळी
नहीं.
६४. अहीं आचार्यदेव एवा अज्ञानी जीवोने संबोधन करीने जगाडे छे ने तेनुं
चैतन्यपद केवुं सुंदर छे ते बतावे छे. अरे जीव! रागादि भावो ते तारुं साचुं
पद नथी, तारुं निजपद तो अंदर शुद्ध चैतन्यनुं बनेलुं छे; ते चैतन्यपदमां
रागादिनो प्रवेश नथी.
६५. आवा निज चैतन्यतत्त्वने जेओ नथी देखता, ते भले देव होय के राजा होय–
पण आचार्यदेव कहे छे के ते जीवो अंध छे–निजनिधान पोतामां भर्या छे तेने
नहि देखनारा आंधळा छे. बापु! हवे तुं ज्ञानचक्षु खोलीने तारा चैतन्यपदने
देख. अंदर चैतन्यवस्तु सत् छे तेने तुं देख.