Atmadharma magazine - Ank 369
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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: अषाढ : २५०० आत्मधर्म : ७ :
अहो, श्रीगुरुए तो आत्मानुं स्वरूप समजावीने मोटो उपकार कर्यो; ते
आत्मानी साथे सरखावी शकाय एवी बीजी कोई वस्तु जगतमां नथी,–के जेना वडे हुं
गुरुना उपकारनो बदलो वाळुं!–आम श्री देव–गुरु प्रत्ये अने तेमनी वीतरागवाणी
प्रत्ये धर्मीना मनमां अत्यंत बहुमान वर्ते छे.
–आ रीते श्रावकनी भूमिकामां रोजरोज देव–गुरु–शास्त्रनी उपासना,
स्वाध्याय, दान वगेरेनो भाव आवे छे; तेमां जे शुभराग छे ते तो स्वर्गनुं कारण
छे, ते श्रावकनो व्यवहार–आचार छे; अने अंतरमां सर्वज्ञस्वरूपी आत्माना श्रद्धा–
ज्ञान–आचरणरूप जेटली शुद्धता प्रगटी छे ते तेनो परमार्थ–आचार छे, ते मोक्षनुं
कारण छे.
सुखना शोधकने–
मुमुक्षुजीवे स्व–परना भेदज्ञानवडे, अने अंदर ज्ञान तथा रागना
सूक्ष्म भेदज्ञान वडे तत्त्वनी परीक्षा करीने आत्मानुं साचुं स्वरूप
ओळखवुं जोईए.
आत्माने पोतानो अनुभव करवा माटे अंदर एकाग्र थवुं पडे छे,
बहारमां जोवुं नथी पडतुं. बहारमां एकाग्रतावडे आत्मानो पत्तो लागतो
नथी; अंतरमां एकाग्रतावडे ज आत्मानो पत्तो लागे छे.
ज्यां आत्मा छे त्यां ज आत्मानुं सुख छे. आत्मानुं सुख आत्माथी
बहार बीजे क््यांय नथी. हे जीव! सुख अंतरमां छे, बहारमां नथी.
बहारमां न शोध. अंतरना सुखने प्राप्त करवा बाह्य पदार्थोनुं आश्चर्य
भूल, ने चैतन्यनी अद्भुतताने जाण. तारा आत्मानो अचिंत्य महिमा
ज्ञानमां आवतां तेनुं सुख पण तने तारामां अनुभवाशे.