Atmadharma magazine - Ank 369
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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: : आत्मधर्म : अषाढ : २५००
ज्ञान ते गुण छे: पुण्य–राग ते दोष छे
(संवर–निर्जरा) (आस्रव–बंध)
तेथी न करवो राग जरीये क््यांय पण मोक्षेच्छुए
अरे जीव! ज्ञान तो तारो गुण छे ने पुण्य–राग तो दोष छे. ज्ञानगुणमां
पुण्यनो राग समाय नहि; जेम आंखमां कणियो समाय नहि तेम तारा ज्ञानचक्षुमां
रागनो कोई कणियो समाई शके नहि. जेने पुण्य–रागनो उत्साह छे तेने चैतन्य–गुणनो
उत्साह नथी, पण दोषनो उत्साह छे. भाई, आत्मानो पवित्रस्वभाव, राग वगरनो
चोकखो, तेनो तुं उत्साह कर. आ तो जिनेश्वरोनो वीतरागमार्ग! तेमां रागनी गरबड
चाले नहि. वीतरागमार्गमां रागने घूसाडवा मागे एवी बळजबरी जैनशासनमां चाली
शके नहि. ज्ञानभाव रागना कोईपण कणने संघरे नहि–एटले के पोतामां स्वीकारे नहि.
ज्ञान ते तो संवरनिर्जरा छे, ने राग तो आस्रव–बंध छे. अज्ञानी कंईक शुभराग करे
त्यां तेमां प्रसन्न अने उत्साही थईने एम माने छे के जाणे हुं धर्ममां खूब आगळ वधी
गयो. शुभरागने ते सारूं काम मानी ल्ये छे पण राग वगरना सम्यग्दर्शन–ज्ञान–
चारित्ररूप वीतरागभाव–के जे खरेखर सारूं ने उत्तम कार्य छे–तेने तो ते ओळखतो
नथी, उल्टो तेना उपर अणगमो करे छे. बापु! मोक्षने माटे सारूं उत्तम काम तो ज्ञाननो
अनुभव छे; तेमां वीतरागता छे, ने ते मोक्षनुं कारण छे. राग ते कांई मोक्षने माटे सारूं
कार्य नथी,–ते कर्तव्य नथी; राग तो संसारनुं कारण छे–
तेथी न करवो राग जरीये क््यांय पण मोक्षेच्छुए;
वीतराग थईने ए रीते ते भव्य भवसागर तरे.
(पंचास्तिकाय: १७२)
–माटे हे भव्यमुमुक्षु! तुं ज्ञाननो उत्साह कर, ने रागनो उत्साह छोड.
गुण अने दोष
सम्यग्दर्शन ते तो आत्मगुण छे; शुभरागादिभावो ते कांई आत्मगुण नथी,
ते तो दोष छे. सम्यक्त्वादि गुणोमां तेनो अभाव छे,