Atmadharma magazine - Ank 369
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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: अषाढ : २५०० आत्मधर्म : १३ :
अहो, शुद्धचैतन्यद्रष्टिनी आ वात समजतां अपूर्व भेदज्ञान थाय छे, ने
रागादिना कर्तृत्वथी छूटीने शुद्ध ज्ञानपरिणमन वडे जीव मोक्षमार्गने साधे छे.
जुओ, बधा पडखाथी अनेकान्तरूप वस्तुस्वरूप जिनमार्गअनुसार बराबर
जाणवुं जोईए. धर्मीने रागादि अशुद्धभावनुं कर्तापणुं नथी–एम कह्युं, ते स्वभावना
शुद्धपरिणमन अपेक्षाए कह्युं छे; पण तेथी कांई धर्मीने रागादि अशुद्ध परिणमन थतुं
ज नथी–एम एकांत नथी; जेटला रागादि भावो पूजा–तीर्थयात्रा वगेरे शुभना, के
वेपार–धंधा वगेरे अशुभना, थाय छे तेटलुं अशुद्धपरिणमन पण तेनुं ज छे, ते कांई
बीजा कोईकनुं परिणमन नथी, के जडमां कांई ते भावो थता नथी. ते जीवनी पर्यायमां
ज तेवुं अशुद्धपरिणमन हजी छे. तेमज, एवा रागादिभावो जेने थाय ते जीवने धर्मी
कहेवाय ज नहि–एम पण नथी. रागादि थता होय छतां ते ज वखते तेनाथी भिन्न
शुद्ध चैतन्यभावनुं परिणमन जेने भेदज्ञानना बळे वर्ते छे ते जीव धर्मी छे, ने ते
धर्मीजीवना शुद्धपरिणमनमां रागादि अशुद्धतानुं कर्तृत्व जरापण नथी. हा, रागादि
वखते ते रागादि जेटलो ज पोताने अशुद्ध अनुभवे, ने शुद्धतारूप परिणमन जराय
होय ज नहि–तो ते जीव अधर्मी छे.–आ रीते ज्ञानी तथा अज्ञानीना परिणामनी जे
रीते जे स्थिति छे तेने बराबर ओळखवी जोईए; तो ज पोतामां भेदज्ञान थाय, ने
रागादि अशुद्धतानुं कर्तृत्व छूटीने, शुद्धज्ञानपरिणमनरूप मोक्षमार्ग प्रगटे.
‘जगत ईष्ट नहि आत्मथी’
जगतने राजी करवा करतां आत्माने राजी कर.
अहो, जैनशासन कोई अपूर्व छे. बीजा कोई साथे तेनुं मिलान थई
शकतुं नथी. बीजा मिथ्यामत साथे सर्वज्ञना जैनधर्मनुं मिलान करवुं ते तो
जनरंजन छे; अने ज्यां जनरंजन छे त्यां जिनरंजन थतुं नथी. जनरंजन ए
तो संसार छे. बापु! तुं जगतने राजी करवा रोकाणो तो मोक्षने क््यारे
साधीश? जनरंजननी वृत्ति छोडीने जिनरंजन कर...एटले के आत्मा राजी थाय
ने आत्मानुं हित थाय–तेम कर. धर्मी तो जनरंजन छोडीने ‘आत्मरंजन’ करे
छे. लोको राजी थाय के न थाय, पण मारो आत्मा राजी थाय ने मारो आत्मा
धर्मसाधन वडे आ भवदुःखथी छूटीने मोक्षसुखने पामे–एनुं धर्मीने लक्ष छे.