Atmadharma magazine - Ank 369
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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: अषाढ : २५०० आत्मधर्म : १७ :
अरे, मुनि आहारनुं नाम पण ल्ये तो तेने प्रमाद थवाथी ते ‘प्रमत्तसंयत्’ थई
जाय छे, तो पछी जे आहारनुं ग्रहण करे तेने सर्वज्ञता क््यांथी होय?
भगवान अतीन्द्रिय ज्ञानरूप थया छे, ईन्द्रियज्ञान ज तेमने रह्युं नथी, त्यां
ईन्द्रियविषयो तेमने क््यांथी होय?–एटले भोजन क््यांथी होय? जेनी रसनाईंद्रिय
जीवती होय तेने ज रसनो आहार होय, एटले जे सर्वथा अरस–भावरूप थया न होय
तेने ज रसनुं भोक्तापणुं होय.
वळी, दूरथी मांसादि नजरे पडी जाय तो आपणे पण भोजनमां अंतराय
समजीने छोडी दईए छीए; तो केवळज्ञानवडे संसारनां मांसादिने देखी रहेला भगवान
कई रीते भोजन करे?
जेने रागादि दोष होय, जेनी शक्ति अल्प होय, जेने ईन्द्रियज्ञान काम करतुं
होय ने जेने दुःख होय–तेने ज भोजन होई शके; जे वीतराग छे, जेनी आत्मशक्ति
अनंतवीर्यरूपे खीली गई छे, जेने अतीन्द्रियज्ञान वर्ते छे अने जेओ संपूर्ण सुखी छे–
एवा भगवान अरिहंतदेवने क्षुधा के आहार होता नथी,–एम जाणीने निःसंदेह थाओ.
कोई जीवे उपवास कर्यो होय अने तेना संबंधमां कोई एम कहे के ‘आणे आजे
खाधुं छे’–तो ते जूठुं कलंक लगाडनार पापी छे; तो पछी जेमणे आहारनो सर्वथा त्याग
कर्यो छे एवा जगतगुरु भगवान अरिहंतने माटे एम कहेवुं के तेओ आहार करे छे–ते
तो महान पाप छे. अरे, अरिहंतदेवने आवुं कलंक कहेनारने केटलुं पाप लागतुं हशे–ते
एम कही शकता नथी.
माटे हे मित्र! जेमने आहार–पाणी नथी, आहार वगर ज जेओ पूर्ण सुखी छे
अने ज्ञानादि अनंतगुणथी जेओ शोभी रह्या छे–एवा वीतरागी अरिहंत परमात्मा ते
देव छे–एम निःशंकपणे ओळखीने तेमनी तुं सेवा कर. सर्वज्ञनी साची ओळखाणथी
तारुं मिथ्यात्व मटीने तने सम्यक्त्व थशे, एटले तारुं भवदुःख छूटीने तने मोक्षसुख थशे.
परसेवो न होवो, मल–मूत्र न होवा, शरीरनुं लोही सफेद होवुं, सुंदररूप, सुगंध;
उत्तम संस्थान, उत्तम संहनन वगेरे जे गुण–के अतिशय अरिहंतदेवने कहेवामां आवे
छे ते बधा, जीवने आश्रित नथी पण शरीरने आश्रित छे, एटले के तेओ शरीरनां
धर्मो छे पण जीवनां धर्मो ते नथी–एम जाणवुं.
सर्वज्ञताने पामेला भगवान जिनेन्द्रदेव उपर कदी कोई जातनो उपसर्ग थई