शत्रुता छोडीने मित्रभावे रहे छे. प्रभुना शरीरनी छाया पडती नथी, आंखमां टमकार
थतो नथी, बोलतां होठ हालता नथी, जमीन पर चालता नथी पण गगनविहार करे छे.
अमृतने छोडीने ते झेर पीए छे. जेम आकाशथी कोई मोटुं नथी तेम भगवान
जिनेन्द्रदेवथी मोटा कोई देव नथी. माटे हे भव्य! तुं आवा भगवानने ओळखीने
तेमनी भक्ति कर. ते भगवाने कहेला वीतराग धर्मनुं ज आचरण कर. ते धर्मना
आचरण वडे तुं पण भगवान थई जईश.
सम्यग्ज्ञानना पवित्र जळ वडे ज धोवाय छे. मृत माता–पिता वगेरे अन्यने माटे नहि
पण केवळ पोताना धर्मपालनने माटे श्रद्धापूर्वक सुपात्रोने दान देवुं ते सौथी उत्तम श्राद्ध
छे; ए सिवाय मृत पुरुषो माटे करवामां आवतुं श्राद्ध ते तो मिथ्यात्वपोषक छे. अज्ञानी
अने राग–द्वेषमां अत्यंत आसक्त एवा मूर्ख जीवो वडे ज कुधर्मनो उपदेश देवामां आवे
छे. अज्ञानीओने छेतरनारो ते कुधर्मनो उपदेश अनेक दोषथी भरेलो छे, माटे हे भव्य!
तुं तेने झेरी सर्प जेवो जाणीने छोडी दे.
भले मेलुं होय पण तेमनुं चित्त सदा मोहरहित निर्मळ छे; मोक्षसुख सिवाय बीजे
कयांय तेमनुं चित्त आसक्त नथी. जेओना श्रीमुखथी सदाय वीतरागताना उपदेशरूपी
परम अमृत झरे छे–आवा श्रेष्ठ गुरुनी तुं सेवा कर, ने पापपोषक कुगुरुओनुं सेवन
दूरथी ज छोड. जेओ पोते अज्ञान अने दूराचार वडे भवसमुद्रमां डुबी रह्या छे तेओ
बीजाने कई रीते तारशे?