Atmadharma magazine - Ank 369
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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: १८ : आत्मधर्म : अषाढ : २५००
शकतो नथी, तेमनी समीपमां कोई जीवोनी हिंसा थती नथी, बधा जीवो परस्पर
शत्रुता छोडीने मित्रभावे रहे छे. प्रभुना शरीरनी छाया पडती नथी, आंखमां टमकार
थतो नथी, बोलतां होठ हालता नथी, जमीन पर चालता नथी पण गगनविहार करे छे.
अरे, आवा परम वीतराग जिनदेवने छोडीने जे तुच्छविषयासक्त कुदेवोने पूजे
छे ते मूर्ख जीवना मिथ्यात्वपापनुं शुं कहेवुं?–ते भयंकर भवसमुद्रमां डुबका खाय छे...
अमृतने छोडीने ते झेर पीए छे. जेम आकाशथी कोई मोटुं नथी तेम भगवान
जिनेन्द्रदेवथी मोटा कोई देव नथी. माटे हे भव्य! तुं आवा भगवानने ओळखीने
तेमनी भक्ति कर. ते भगवाने कहेला वीतराग धर्मनुं ज आचरण कर. ते धर्मना
आचरण वडे तुं पण भगवान थई जईश.
धर्मरूपी जे कल्पवृक्ष छे तेनुं फळ मोक्ष छे ने तेनुं मूळ सम्यग्दर्शन छे. दुष्ट जीवना
हृदयमां रहेल पाप–मलिनता कांई पाणीना स्नानवडे धोवाती नथी; ते तो
सम्यग्ज्ञानना पवित्र जळ वडे ज धोवाय छे. मृत माता–पिता वगेरे अन्यने माटे नहि
पण केवळ पोताना धर्मपालनने माटे श्रद्धापूर्वक सुपात्रोने दान देवुं ते सौथी उत्तम श्राद्ध
छे; ए सिवाय मृत पुरुषो माटे करवामां आवतुं श्राद्ध ते तो मिथ्यात्वपोषक छे. अज्ञानी
अने राग–द्वेषमां अत्यंत आसक्त एवा मूर्ख जीवो वडे ज कुधर्मनो उपदेश देवामां आवे
छे. अज्ञानीओने छेतरनारो ते कुधर्मनो उपदेश अनेक दोषथी भरेलो छे, माटे हे भव्य!
तुं तेने झेरी सर्प जेवो जाणीने छोडी दे.
अग्निमां बळी मरवुं सारुं छे, गळे सर्प नाखवो सारो छे, विषनुं भक्षण करवुं
सारूं छे, पण मिथ्यात्वना सेवनपूर्वक जीवीत रहेवुं ते सारूं नथी.
–माटे कुधर्मने छोडीने जिनधर्मनुं सेवन कर. जिनमार्गमां गुरु ते छे के जेमनो
वेष श्री जिनसमान छे; आवा रत्नत्रयवंत गुरुने ओळखीने तेमनी सेवा करो. शरीर
भले मेलुं होय पण तेमनुं चित्त सदा मोहरहित निर्मळ छे; मोक्षसुख सिवाय बीजे
कयांय तेमनुं चित्त आसक्त नथी. जेओना श्रीमुखथी सदाय वीतरागताना उपदेशरूपी
परम अमृत झरे छे–आवा श्रेष्ठ गुरुनी तुं सेवा कर, ने पापपोषक कुगुरुओनुं सेवन
दूरथी ज छोड. जेओ पोते अज्ञान अने दूराचार वडे भवसमुद्रमां डुबी रह्या छे तेओ
बीजाने कई रीते तारशे?
सर्प–शत्रु अने चोर वगेरेनो समागम तो सारो, परंतु मिथ्यात्वमार्गमां लागेला