Atmadharma magazine - Ank 369
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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: अषाढ : २५०० आत्मधर्म : १९ :
कुगुरुओनो समागम भुंडो...केम के सर्प–शत्रु वगेरेना संबंधथी तो एक भवमां ज दुःख
थाय छे, पण कुगुरुओना संगथी तो जीव अनंत भवमां दुःखी थाय छे.
श्री जिनेन्द्रदेव, वीतरागधर्म अने निर्ग्रंथ गुरु–ए त्रणे सम्यक्त्वनां प्रधान
कारण छे, अर्थात् ते त्रणेनी यथार्थ ओळखाण अने श्रद्धाथी सम्यग्दर्शन थाय छे. हे
वत्स! आ सम्यग्दर्शन अमृतसमान छे, केमके ते सर्वदोष रहित छे, भगवान तीर्थंकर
परमदेवे पोते तेनुं निरूपण कर्युं छे, त्रणेलोकनां ईन्द्रो तेने भक्तिथी सेवे छे, भव्य–
सुपात्रमां ज ते रहे छे, उत्तम गुणोनुं ते निधान छे; ते सम्यग्दर्शन होतां अनेक उत्तम
गुणो स्वयमेव प्रगटी जाय छे; मोक्षना झाडनुं ते बीज छे. माटे हे भव्य! तुं बधा
प्रकारनी शंका छोडीने आ सम्यग्दर्शनने धारण कर...सम्यक्त्वरूपी आनंद–अमृतनुं पान कर.
[प्रश्नोतर–श्रावकाचार अध्याय ४ मांथी]
सम्यग्दर्शन मोक्षमंदिरनुं प्रथम सोपान छे.
मिथ्याद्रष्टि जीव अहिंसा धर्मने समजी शकतो नथी, मिथ्यात्व विषसमान छे
अने ते जीवना ज्ञान–चारित्रने पण नष्ट करे छे.
अरिहंतोने पण आहार होवानुं माननारा श्वेतांबरने सांशयिक मिथ्याद्रष्टिमां
गण्या छे.
सम्यग्दर्शन नरक–तिर्यंचगतिनां द्वार बंध करनारुं छे ने स्वर्ग–मोक्षना दरवाजा
खोलनारूं छे; तेने हे भव्य! तुं धारण कर.
प्रभो! सम्यग्द्रष्टिनुं निःशंकता अंग केवुं छे? ते कहो! सांभळ! हे वत्स! पर्वत
कदाचित चलायमान थई जाय, अग्नि कदाचित् शितळ थाय तोपण भगवान
सर्वज्ञदेवना कहेलांं जीवादि तत्त्वोमां कदी अंतर पडतुं नथी.–आ प्रमाणे सूक्ष्म तत्त्वोमां,
धर्मना स्वरूपमां, अरिहंतना स्वरूपमां, मुनिओना स्वरूपमां तथा ज्ञानमां अने
मोक्षमार्गमां शंका छोडीने निश्चल श्रद्धा रहेवी ते निःशंकता छे.
जेने आवी निःशंकता छे तेणे बधा कुदेवोने तथा कुमार्गने छोडया छे, अने कोई
प्रकारनो भय तेने होतो नथी. निर्भयपणे जिनमार्गने साधीने ते मोक्षने पामे छे. हे
भव्य! सम्यग्दर्शन अनुपम गुणोनो भंडार छे, मोक्षनुं मूळ छे; तीर्थंकरो पण तेने सेवे
छे. संसारसमुद्र तरवा माटे ते नौका छे, ते पवित्र तीर्थ छे, माटे कुसंगति छोडीने तुं
आवा कल्याणरूप सम्यग्दर्शननुं सेवन कर.