थाय छे, पण कुगुरुओना संगथी तो जीव अनंत भवमां दुःखी थाय छे.
वत्स! आ सम्यग्दर्शन अमृतसमान छे, केमके ते सर्वदोष रहित छे, भगवान तीर्थंकर
परमदेवे पोते तेनुं निरूपण कर्युं छे, त्रणेलोकनां ईन्द्रो तेने भक्तिथी सेवे छे, भव्य–
सुपात्रमां ज ते रहे छे, उत्तम गुणोनुं ते निधान छे; ते सम्यग्दर्शन होतां अनेक उत्तम
गुणो स्वयमेव प्रगटी जाय छे; मोक्षना झाडनुं ते बीज छे. माटे हे भव्य! तुं बधा
प्रकारनी शंका छोडीने आ सम्यग्दर्शनने धारण कर...सम्यक्त्वरूपी आनंद–अमृतनुं पान कर.
मिथ्याद्रष्टि जीव अहिंसा धर्मने समजी शकतो नथी, मिथ्यात्व विषसमान छे
सर्वज्ञदेवना कहेलांं जीवादि तत्त्वोमां कदी अंतर पडतुं नथी.–आ प्रमाणे सूक्ष्म तत्त्वोमां,
धर्मना स्वरूपमां, अरिहंतना स्वरूपमां, मुनिओना स्वरूपमां तथा ज्ञानमां अने
मोक्षमार्गमां शंका छोडीने निश्चल श्रद्धा रहेवी ते निःशंकता छे.
भव्य! सम्यग्दर्शन अनुपम गुणोनो भंडार छे, मोक्षनुं मूळ छे; तीर्थंकरो पण तेने सेवे
छे. संसारसमुद्र तरवा माटे ते नौका छे, ते पवित्र तीर्थ छे, माटे कुसंगति छोडीने तुं
आवा कल्याणरूप सम्यग्दर्शननुं सेवन कर.