: अषाढ : २५०० आत्मधर्म : २१ :
प्रसंशनीय छे; परंतु मिथ्यात्वरूपी झेरथी बगडेला एवा व्रत–ज्ञानादि ते
सारां नथी.
• सम्यक्त्व वगरनो जीव खरेखर पशुसमान छे; जन्मांधनी जेम ते धर्म–अधर्मने
जाणतो नथी.
• दुःखोथी भरेला नरकमां पण सम्यक्त्व सहित जीव शोभे छे; तेना वगरनो जीव
देवलोकमां पण शोभतो नथी. केमके ते नरकनो जीव तो सारभूत एवा
सम्यक्त्वना माहात्म्यने लीधे त्यांथी नीकळीने लोकालोक–प्रकाशक तीर्थनाथ थशे;
अने मिथ्यात्वने लीधे भोगमां तत्पर एवो ते देवनो जीव आर्त्तध्यान वडे
मरीने स्थावर योनिमां जशे.
• त्रणकाळमां के त्रणलोकमां सम्यक्त्व समान धर्म बीजो कोई नथी; जगतमां ते
जीवने परम हितकर छे.
• सम्यक्त्व सिवाय बीजो कोई जीवनो मित्र नथी, बीजो कोई धर्म नथी, बीजुं
कोई सार नथी, बीजुं कोई हित नथी, बीजा कोई पिता–मातादि स्वजन नथी,
के बीजुं कोई सुख नथी. मित्र–धर्म–सार–हित–स्वजन–सुख ए बधुंय
सम्यक्त्वमां समाय छे.
• सम्यक्त्वथी अलंकृत ढेढ पण देवो–वडे पुजाय छे; परंतु सम्यक्त्व वगरनो जीव
त्यागी होय तोपण पदे–पदे निंदनीय छे.
• एक वखत सम्यक्त्वने अंतर्मुहूर्तमात्र पण ग्रहण करीने, जीव कदाचित् तेने
छोडी द्ये तोपण, चोक्कस ते अल्पकाळमां (पुन: सम्यक्त्वादि ग्रहण करीने)
मुक्ति पामशे.
• जे भव्य जीवने सम्यक्त्व छे तेना हाथमां चिंतामणि छे, तेना घरे कल्पवृक्ष अने
कामधेनु छे.
• आ लोकमां निधाननी जेम सम्यक्त्व भव्य जीवोने सुखदाता छे; ते सम्यक्त्व
जेणे प्राप्त कर्युं तेनो जन्म सफळ छे.
• जे जीव हिंसा छोडीने, वनमां जई एकलो वसे छे ने ठंडी–गरमी सहन करे छे–
पण जो सम्यग्दर्शन वगरनो छे–तो ते वनना झाड जेवो छे.