: अषाढ : २५०० आत्मधर्म : ३१ :
• साधकदशा ते जीवनी भरयुवानदशा छे. जेम लोको युवानदशामां कमाईने पछी
शांतिथी रहे छे तेम हे जीव! अत्यारे आ तारे धर्मनी कमाणीनो सरस मजानो अवसर छे, खूब
उद्यमपूर्वक तुं धर्मनी कमाणी करी छे...पछी मोक्षमां बेठोबेठो अनंतकाळ सुधी शांतिथी तेनुं
फळ भोगवजे.
• बे साधर्मी चर्चा करता हता:–
एके पूछयुंं–आत्मा पोतानी पर्यायनो कर्ता छे ए वात साची छे?
बीजाए कह्युं–हा; कर्ता–कर्मना स्वरूपनी अपेक्षाए ते सत्य छे, के आत्मा पोतानी
पर्यायने करे छे. पण अभेदअनुभूतिनुं वर्णन होय त्यारे तेमां कर्ता–कर्मना भेद न आवे; तेमां
तो द्रव्य–गुण–पर्यायना एक अभेद सत्त्वरूप शुद्धआत्मा ज आवे.
• प्रश्न:– दुःखप्रसंगे के वैराग्यप्रसंगे शुं विचारवुं?
उत्तर:– वैराग्यप्रसंगे अने सत्संगने पोताना हितनुं निमित्त बनाववुं ते कर्तव्य छे.
देहथी आत्मा जुदो छे ने जुदो पडवानो ज छे. पण तेवो प्रसंग आव्या पहेलांं, अत्यारथी जो
तेनुं थोडुंक पण लक्ष राख्युं होय तो जीवनुं घणुं हित थाय, ने नजीवी बाबतोमां ममताथी
संसारमां जे कलेश उभा थाय छे ते बधा मटी जाय, जीवनमां कोई अनेरी शांति अनुभवाय.
कोई पण प्रसंगे पोतानी शांतिनुं ध्येय मुमुक्षुए चूकवुं नहीं.
देह अने आत्मा जुदा थवाना छे ए तो नक्की ज छे, तो एवुं कांईक करीए के जेथी
आत्माने लाभ थाय, ने आपणुं जैनपणुं शोभी ऊठे.
* श्रुतना शब्दो आत्माना वाचक छे,–पण क््यारे?
“ हे चैतन्यप्रभु! तारो महिमा शुं लख्ये पार पडे तेवो छे? ”–जोके एकला शब्दोथी
पार न पडे....पण–हा! संतोए द्रव्यश्रुतमां एनां रहस्यो भर्या छे, ते द्रव्यश्रुतना वाच्यनी संधि
भावश्रुतज्ञान वडे करे तो जीवने चैतन्यनो परम गंभीर महिमा अल्प शब्द द्वारा पण वाच्यरूप
थई जाय छे. ‘वाच्य’ तरफ ज्ञानने लंबाव्या वगर एकला वाचक शब्दो कांई कार्यकारी नथी, तेने
खरेखर ‘वाचक’ संज्ञा पण मळती नथी. वाच्य साथे संधि होय तेने ज ‘वाचक’ कहेवाय. एटले
भावश्रुत–सापेक्ष द्रव्यश्रुत ते ज खरुं द्रव्यश्रुत छे.
* तुं ज तारो सदानो साचो साथीदार
आत्मा सौथी सुंदर महान वस्तु छे–ए पोतानी साची मूडी छे, ए ज पोतानो साचो
सगोने साथीदार छे ने ए ज एक साचो आनंद देनार छे. एनुं चिंतन शांत भावथी करो.
“जीवने नथी कंई ध्रुव...
धु्रव उपयोग–आत्मक जीव छे.”