: श्रावण–भाद्र : रप०० आत्मधर्म : ७ :
अतीन्द्रिय ज्ञान अने आनंदनी प्राप्ति करावे छे. आवुं महान परमागम आजे
प्रवचनमां शरू थाय छे.
प्रथम मंगळरूपे अमृतचंद्राचार्य उत्कृष्ट ज्ञानानंद–स्वरूप
आत्माने नमस्कार करे छे:
(कळश: १)
जे सर्वव्यापी एटले के सर्व पदार्थने जाणनार एवा चैतन्यस्वरूप छे, जे
आत्मानी स्वानुभूतिवडे प्रसिद्ध छे अने जे ज्ञान–आनंदस्वरूप छे एवा उत्कृष्ट
आत्माने नमस्कार हो.
ज्ञान ने आनंदस्वरूप आत्मानी प्रसिद्धि स्वानुभव वडे ज थाय छे, तेने माटे
बीजो उपाय नथी. ते अनुभव माटे तेनुं स्वरूप लक्षगत करीने, तेना रसपूर्वक वारंवार
अंदर तेनुं घोलन करवुं जोईए. चैतन्यसन्मुखना भाव वडे तेनो अनुभव थाय छे ने
ज्ञान–आनंदनो स्वाद आवे छे; आवो भगवाननो मार्ग छे. आ सिवाय राग वडे के
कोई परनी सन्मुखता वडे आत्माना ज्ञान–आनंद प्रगटता नथी.–एटले ते भगवाननो
मार्ग नथी.
भगवाननो मारग आखी दुनियाथी भले जुदो, पण पंच परमेष्ठी भगवंतो
साथे मेळवाळो छे. जेमां स्वसन्मुख आनंदनुं वेदन थाय एवो जिन भगवाननो मार्ग
छे ते अपूर्व पात्रताथी प्राप्त थाय छे.
अहो, आत्मानी अनुभवदशा, ते केवळज्ञाननी लक्ष्मीनो लाभ करावनार छे.
जगतनी जड लक्ष्मीना ढगलानी जेनी पासे कोई ज किंमत नथी, एवी केवळज्ञान–
लक्ष्मीनो दिव्य–अद्भुत आनंदवैभव आत्माना अनुभवथी ज मळे छे.–बीजा कोई
कारणनी (पुण्यनी के संयोगनी) अपेक्षा तेमां नथी, एकला पोताना ज्ञानानंदस्वरूपने
ज अवलंबीने केवळज्ञान ने महाआनंद प्रगटे छे, आवो आत्मानो स्वभाव ज छे;
आवा उत्कृष्ट ज्ञान–आनंदस्वरूपनी प्रसिद्धिने माटे, ते उत्कृष्ट ज्ञानानंदस्वरूप आत्माने
नमस्कार कर्या छे. आवुं अपूर्व मंगळ करीने, परमानंदरूपी सुधारसना पिपासु जीवोने
माटे आ परमागमनी टीका द्वारा आत्मतत्त्व प्रगट करवामां आवे छे,–आत्मतत्त्वनी
अनुभूति वडे भव्य जीवो निर्विकल्परसनुं पान करीने पिपासा मटाडे छे, ने
आनंदरसथी तृप्त थाय छे.
रागनो अनुभव तो जीवे अनंतकाळ कर्यो पण तेनी पिपासा मटी नहि. जेने