Atmadharma magazine - Ank 370
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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: श्रावण–भाद्र : रप०० आत्मधर्म : ९ :
श्रावकनां आचार
जैन सद्गृहस्थ श्रावकनुं जीवन केवा सुंदर धार्मिक आचारथी
शोभतुं होय छे–तेनुं आ वर्णन छे. तेमां मूळ कर्तव्यरूप सम्यक्त्वनो
महिमा, तथा तेने माटे साचा देव–गुरु–शास्त्रना स्वरूपनी
ओळखाण केवी होय ते गतांकमां बताव्युं. हवे ते सम्यग्दर्शन
उपरांत अहिंसादि व्रतो केवां होय छे ते आप अहीं वांचशो. श्री
सकलकीर्तिरचित श्रावकाचार (अध्याय १र) मांथी आ संक्षिप्त
दोहन आपवामां आव्युं छे. (–सं.)
श्रावकनां ११ स्थानोमां प्रथम दर्शनप्रतिमा छे. सम्यक्त्वसहित जेने आठ
मूळगुणोनुं धारण छे अने सात व्यसनोनो त्याग छे, तेने जिनदेवे दर्शनप्रतिमायुक्त
दार्शनिक श्रावक कह्यो छे.
मांस–मध–दारू तथा पांच उदम्बर फळोनो निरतिचार त्याग ते अष्ट मूळगुण
छे. (ईंडा ते पण पंचेन्द्रियनुं मांस ज छे.)
मांसने छोडया वगर जे धर्म वांछे छे ते मूर्ख जीव आंख वगर नाटक जोवा
चाहनारा अंध जेवो छे. रोगादि दूर करवाना हेतुथी पण जे मधनो उपयोग करे छे ते
जीव महापापथी नरकादि दुर्गतिमां जाय छे.
प्राणोनो त्याग थई जाय तो भले थई जाय परंतु गमे तेवा दुष्काळ वगेरेमां
पण, असंख्य त्रसजीवथी भरेला एवा पंचउदम्बर फळो वगेरेनुं भक्षण करवुं उचित
नथी. हे मित्र! धर्मनी प्राप्ति माटे तुं ते बधानो त्याग कर.
आठ मूळगुण, ते बार व्रतोनुं मूळ कारण छे, अने बार व्रतोनी पहेलांं ते
धारण करवामां आवे छे, तेथी तेने श्रावकनां मूळगुण कहेवामां आव्यां छे. ते स्वर्गादिनुं
कारण छे.
द्युतक्रीडा, मांस, दारू, वेश्या, शिकार, चोरी, परस्त्री–ए सातेनुं सेवन
महापापरूप छे, ने सात नरकनुं ते द्वार छे; माटे ते साते पाप–व्यसनोने हे भ्रात! तुं
सर्वथा छोड.