Atmadharma magazine - Ank 370
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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: १० : आत्मधर्म : श्रावण–भाद्र : रप००
पाप–राजाए पोतानुं राज्य द्रढ करवा माटे, अने पोताना धर्मशत्रुनो नाश
करवा माटे आ सात व्यसनरूपी सेना राखी छे, (पण हे मुमुक्षु! तुं तेने वश थईश मा.
तारा सम्यक्त्व अने ज्ञान–वैराग्यना बळे तेनो मूळमांथी नाश करी नांखजे.
सम्यक्त्वरूपी तारुं सुदर्शनचक्र, अने आठ अंगरूपी तारुं सैन्य, तेना वडे सप्त व्यसननी
सेनाने नष्ट करीने अष्टगुणने धारण करजे.)
सर्वे जीवो प्रत्ये दयारूप अहिंसा, तेने गणधरदेवे व्रतनी जननी कही छे. पांचे
व्रतो अहिंसा–माताना ज पुत्रो छे.
अहिंसा–माता, मातानी जेम सर्वे जीवोनुं हित करनारी छे; तथा ते गुणोनी
जन्मभूमि छे, सुखनी करनारी छे, ने सारभूत सर्वे गुणोनी दातार छे; ते सुखनी
निधान ने रत्नत्रयनी खाण छे, सद्धर्मरूपी बगीचो खीलवीने तेना उपर स्वर्ग–मोक्ष
फळ पाकवा माटे तथा दुःखदाह दूर करीने शीतळशांतिनी छाया आपवा माटे, आ
अहिंसाने भगवाने उत्तम मेघवर्षा समान कही छे. मुक्तिनी सखी एवी आ अहिंसाने
मुनिवरो पण सेवे छे.
मुनिनां के श्रावकनां बधां व्रतो आ एक ‘अहिंसाधर्मनी सिद्धि’ माटे ज
कहेवामां आव्यां छे. अहिंसानुं पालन करनारने बधां व्रतो सहजपणे पळाय छे. एना
वगरनां तप–व्रत वगेरे बधाय एकडा वगरना शून्यनी जेम निष्फळ छे.
अरेरे! दया वगरनुं जीवतर ते शा कामनुं?
अहिंसारूप वीतरागभाव ते ज सिद्धांतनुं सर्वस्व छे, ते ज चारित्रना प्राण छे,
अने ए ज धर्मवृक्षनुं मूळ छे.
कदाचित् सर्पना मुखमां अमृत पाके, ने रात्रे सूरज ऊगे, पण हिंसा वडे तो धर्म
कदापि थाय नहीं.
हे श्रावकोत्तम! अहिंसाव्रतना पालन माटे, तत्काळनुं गळेलुं पाणी ज वापरवुं
जोईए. सडेलुं (डंखवाळुं) अनाज के सडेलां फळ वापरवां न जोईए. शत्रुने, कूतरां
वगेरे पशुने के बाळक वगेरेने हाथथी के लाकडी वगेरेथी मारवा न जोईए,–केम के ए
तो राक्षसनुं काम छे. मुखथी पण ‘हुं तने मारी नांखु’ ईत्यादि हिंसानां वचन बोलवा
न जोईए. पोतानी बधी प्रवृत्ति जीवरक्षाना प्रयत्नपूर्वक सावधानीथी करवी जोईए,–
जेथी पोताना परिणाममां कषायनी उत्पत्ति न थाय, ने व्रतने योग्य शुद्ध–अकषाय
परिणाम टकी रहे.