: श्रावण–भद्र : रप०० आत्मधर्म : १प :
उत्पन्न करनारां होय, जीवोना वधनुं के बंधननुं कारण होय, एवा सत्य वचनने पण
विद्वानो असत्य ज गणे छे.
सत्य छे ते अमृत समान छे; तेनाथी जीवोने धर्मनी प्राप्ति थाय छे. अहा, आ
जगतमां सर्वे जीवोने सुख देनारां, बधायनुं भलुं करनारां अने प्रसंशनीय एवां
सत्यवचनरूपी अमृत विद्यमान छे–तो पछी भला एवो ते कोण बुद्धिमान होय के जे
जूठा, कडवा अने निंद्यवचन बोले?
हे मित्र! प्राण जवानो प्रसंग आवी पडे तोपण तुं एवा निंद्य, धर्मविरूद्ध वचन
बोलीश नहि. जे वचन कर्कश कठोर ने खराब होय, जे पापनां उपदेशथी भरेलां होय,
ने धर्मथी रहित होय, जे क्रोध उपजावनारां होय के बीजानी निंदा करनारां होय, जे
जीवोने भय उपजावनारां होय, जे विषय–कषायनां पोषक होय, जे देव–गुरु–धर्ममां
दोष लगाडनारां होय, जे शास्त्रविरूद्ध होय, धर्मविरूद्ध होय के देशविरूद्ध होय, जे नीच
लोको द्वारा ज बोलाय तेवां होय,–ईत्यादि सर्व प्रकारनां असत्य वचनोने हे मित्र! तुं
सर्वथा छोडजे; मरण आवे तो पण एवा निंद्य–असत्य वचन उच्चारीश नहीं.
मिथ्यामार्गनो उपदेश ते अनेक जीवोनुं अहित करनार महान असत्य छे. दुष्ट
जीवोए असत्य वचनो वडे कुशास्त्र रचीने लोकोने हिंसक, अने धर्मथी विमुख करी दीधां
छे, कुशास्त्र रचनारा जीवोए असत्यमार्गनी पुष्टि वडे, स्व–परनुं अहित कर्युं छे. असत्य
वचनना प्रभावथी ज जिनशासनमां तेमज अन्यमां अनेक मतांतर उत्पन्न थया छे.
जिनशासनअनुसार सत्यमार्गनो उपदेश–तेना जेवुं महान सत्य बीजुं कोई नथी; ते स्व–
पर समस्त जीवोनुं हित करनार छे, अने अहिंसादिनुं पोषक छे. माटे हे भव्यजीव!
आवा सत्य जिनमार्गने जाणीने तुं तेने आदर; ने जिनमार्ग अनुसार सत्य ज बोल.
नीच माणसना मोढारूपी जे बखोल, तेमां सर्पिणी जेवी जीभ रहे छे, ते
असत्यरूपी हळाहळ झेर वडे अनेक जीवोने खाई जाय छे (–जीवोनुं बूरुं करे छे).
अरेरे! विष्टा खाई लेवी सारी पण पोतानी जीभथी हिंसा करनारा, मिथ्यामार्गनां
पोषक के पाप अने दुःख उत्पन्न करनारां असत्य वचन कदी पण बोलवा सारां नथी.
माटे हे मित्र! झेर जेवा आ असत्यने तुं शीघ्र छोडी दे. असत्य वचनरूपी पापना
फळमां जीवो मूंगा–बहेरा थाय छे, अने सत्यना सेवनथी ज्ञान–विद्या वगेरे वधे छे.
[सत्यव्रतना पालनमां धनदेवनी कथा प्रसिद्ध छे; अने
असत्यसेवनमां श्रीभूति तथा वसुराजानी कथा प्रसिद्ध छे.]