: १६ : आत्मधर्म : श्रावण–भाद्र : रप००
अचौर्यव्रतनुं वर्णन: अध्याय–१४
जेओ पोते अनंत गुणना सागर छे ने अनंत गुणना प्रदाता छे एवा श्री
अनंत–जिनने, अनंतगुणनी प्राप्ति अर्थे नमस्कार करीने, अहिंसाव्रतनी रक्षाना हेतुरूप
अचौर्यव्रत कहीए छीए.
हे भव्य! दीधा वगर अन्यना धन–धान्य वगेरेनुं ग्रहण न करवुं ते अचोरी छे;
वगर दीधेला अन्यना धनने लेवानी वृत्ति तुं दूरथी ज छोड; केम के, सर्पने पकडवो तो
भलो छे पण बीजानुं धन लई लेवुं ते ठीक नथी; भीख मांगीने पेट भरवुं सारूं पण
अन्यनुं द्रव्य चोरीने घी–साकर खावा ते सारूं नथी. चोरीनुं पाप करनारा जीवनुं मन
कयांय स्वस्थ रही शकतुं नथी...अरेरे, चोरने तो शांति क््यांथी होय? तेनुं चित्त सदा
शंकाशील रहे छे.
त्रणलोकनी उत्तम लक्ष्मी पुण्यवानना घरे नीतिमार्गथी ज आवे छे. (चक्रवर्ती
वगेरे विभूति कांई चोरी करीने कोईने नथी आवती, ए तो पुण्यवंत जीवोने
नीतिमार्गथी सहेजे प्राप्त थाय छे.) धनना लोभथी सदोष (अभक्ष्य वगेरेनो) व्यापार
करवो पण उचित नथी. धननो नाश थतां संसारी जीवोने मरण जेवुं दुःख थाय छे; धन
तेमने प्राण जेवुं वहालुं छे तेथी जेणे बीजानुं धन चोर्युं तेणे तेना प्राण ज चोर्या, एटले
तेने जीवहिंसा ज थई. माटे हे बुद्धिमान, हिंसा–पापथी बचवा तुं चोरी पण छोड. अरे,
एवो ते कोण बुद्धिमान होय के जे थोडाक धनने माटे चोरीनुं महापाप करीने नरकादि
दुर्गतिमां भमे? कुटुंबीजनोना उपभोगने माटे पण जे चोरीनुं पाप करे छे ते पण ते
पापनुं फळ भोगववा नरकमां जवा टाणे तो एकलो ज जाय छे, जेने माटे चोरी करी ते
कुटुंब कांई साथे जतुं नथी. आम समजीने हे भव्य! तुं विषसमान अभक्ष्यसमान,
पाप–कलेश तथा अपयशना कारणरूप एवी चोरीने छोड...परधनहरणने छोड...ने
संतोषपूर्वक अचौर्यव्रतनुं पालन कर. बीजाए चोरेला धनने पण तुं तारा घरमां न
राख. अचौर्यव्रतना पालनमां वारिषेण–राजपुत्र प्रसिद्ध छे. तेओ स्थितिकरणमां पण
प्रसिद्ध छे; तेमनी कथा ‘सम्यक्त्व कथा’ मांथी जाणी लेवी. (चोरीना पापसेवनमां एक
दंभी–तापसीनी कथा प्रसिद्ध छे.)