: र० : आत्मधर्म : श्रावण–भाद्र : रप००
स्वभावना आश्रये रागवगरनो मोक्षमार्ग शोभे छे. आवा मोक्षमार्गमां
आवेलो जीव चैतन्यसन्मुख थईने आनंदनुं वेदन करतो करतो मोक्षने साधे छे.
अहो, वीरनो मार्ग तो निर्वाणसुख आपनारो छे.
* हे जीव! अंतर्मुख थईने चैतन्यस्वरूपनी अनुभूति करतां तारा आत्मामां
सम्यकत्व, अतीन्द्रिय आनंद वगेरे अनंतगुणनी शांतिना झरणां झरशे.
अनादिकाळनो तारो दुष्काळ मटी जशे, ने रत्नत्रयना लीलाछम अंकुरथी तारा
आत्मानो बगीचो खीली ऊठशे.
* अहा, आवुं सरस चैतन्यतत्त्व, पोताना ज अंतरमां बिराजमान होवा छतां
तेने जे नथी देखतो, ते बहारमां बीजुं भले देखतो होय तोपण अंध छे. भाई,
जगतना असार बाह्य पदार्थोने तें जोया पण सारभूत तारा आत्मतत्त्वने तें
अंतरमां न देख्युं तो, ज्ञानी कहे छे के तुं अंध छो. अरे, आंखवाळा माणसने
कोई आंधळो कहे तो ते शरमनी वात छे...तेम तुं ज्ञानचक्षुवाळो आत्मा, पोते
पोताने देखवामां आंधळो रहे–ए तो शरमनी वात छे. अरे जीव! ज्ञानने
पामीने तुं तारा आत्माने जरूर जाण.
* अरेरे जीवो! रागना मार्गमां तमने शुं मजा आवे छे! रागना मार्गमां न
छे...आ चैतन्यतत्त्व तरफ आवो...चैतन्यभावमां जे मजा छे तेवी मजा जगतमां
बीजे क््यांय नथी.
* धर्मात्मा जीवनी जेटली परिणति रागथी विरक्त छे तेटलुं शील छे, ने ते मोक्षनुं
कारण छे. नरकना संयोगनी वच्चे रहेला जीवने पण जे सम्यग्दर्शनादि भावो छे
ते तो वीतरागी छे, ते वीतरागी भावनी शांतिनां वेदन पासे नरकनुं दुःख पण
ओछुं थई जाय छे.
* सम्यग्दर्शन पोते अतीन्द्रियभाव छे; तेना फळमां पूर्ण अतीन्द्रियज्ञान ने
सुखरूप मोक्षपदनी प्राप्ति थाय छे. अतीन्द्रियभावनी शरूआत चोथा
गुणस्थानथी थई जाय छे.
* धर्मी जाणे छे के–
मारा चैतन्यस्वरूप आत्माना शुद्ध द्रव््य, शुद्ध गुण ने शुद्धपर्याय–ते मारुं
स्व छे. मारा शुद्ध द्रव्य–गुण–पर्यायमां हुं वसनारो छुं, तेनो ज हुं स्वामी छुं ने
ते मारुं स्व छे. रागादि अशुद्धतामां हुं तन्मय नथी, तेनो हुं स्वामी नथी, ते मारुं