: रर : आत्मधर्म : श्रावण–भाद्र : रप००
* आत्मानो ज्ञानस्वभाव छे; तेमां रागने उत्पन्न करवानो स्वभाव नथी,
ज्ञानपर्यायोने उत्पन्न करे एवुं तेना स्वभावनुं बळ छे. ज्ञानपर्यायोथी
अभिन्नपणे आत्मा परिणमे छे. स्वपर्यायोथी जुदी चैतन्यसत्ता नथी, पण
एकरस छे. ज्ञानपर्याय थवानो आत्मानो स्वभाव छे, ते कांई उपाधि नथी,
पण ते तो पोतानुं स्वाभाविक सामर्थ्य छे.
* चेतनपणे विद्यमान वस्तुरूप जे ज्ञायकभाव छे, तेनो ज्ञानरूपे परिणमवानो
स्वभाव छे; ते जेटला ज्ञानपर्यायोरूपे परिणमे छे ते बधा पर्यायो अभेदमां
तन्मय थईने एक अभेदने अभिनंदे छे; एवा निर्विकल्प ज्ञानस्वरूपे धर्मी
पोताने अनुभवे छे. ज्ञानपर्यायो असत् नथी पण तेना भेदना विकल्पो करवा
ते वस्तुस्वरूपमां असत् छे, राग–विकल्पो ते वस्तुनुं स्वरूप नथी.
* शुद्ध ज्ञानना अनुभवनशील आत्मा, अनाकुळतारूप परम सुखने आस्वादे छे,
ते विकल्पना स्वादने पोतामां भेळवतो नथी. शांतरसनो स्वाद लेनारुं ज्ञान
विकल्पनो स्वाद लेवाने असमर्थ छे; विकल्पनो बोजो ज्ञानने असह्य छे.
चैतन्यनो सुखरस जेणे चाख्यो छे ने तेमां ज जे तन्मय थयेलुं छे ते ज्ञानमां
दुःखरूप विकल्पोनो स्वाद केम समाय? ईंद्रियविषयोना दुःखने ते ज्ञान केम
वेदे? अज्ञानीजनोने जे राग अने विषयोमां सुख लागे छे, ज्ञानीने ते बधा
दुःखरूप लागे छे, ने ज्ञानमय शुद्धस्वरूपमां तद्रूप परिणमतो थको तेना
सुखस्वादने ज ते वेदे छे. अहो, ए सुखनो महिमा ज्ञानीने ज गोचर छे.
* जीवद्रव्यरूपी महासमुद्र, पोताना ज्ञानकल्लोलोरूपे स्वबळथी ज परिणमी रह्यो
छे, एटले ते तो स्वभाव ज छे, ते कांई राग–द्वेषनी जेम उपाधि नथी. जेटला
ज्ञानपर्यायो छे तेमनाथी भिन्न सत्ता नथी, एक ज सत्त्व छे. सत्तास्वरूपे
ज्ञायकभाव एक छे, तथापि अंशभेद करतां अनेक छे. आवा आत्माना
अनुभवनुं जे महान सुख छे ते सुख बीजे क््यांय नथी. जीव अनंतकाळथी चारे
गतिओमां भमतां जेवुं सुख क््यांय पाम्यो नहि एवा अद्भुत सुखनो निधान
आत्मा छे, ने ते सुख धर्मीने आस्वादमां आव्युं छे.
* कोई कहे के एक ज्ञानना पांच प्रकार केम छे? तो कहे छे के ज्ञानपर्याय ते वस्तुनुं
सहज स्वरूप छे, ते ज्ञानना पर्यायो कांई वस्तुथी विरुद्ध तो नथी. विकल्पो जुठा
छे ने ज्ञानथी विरुद्ध छे पण ज्ञानपर्यायो कांई विरुद्ध के जुठा नथी; आत्मा
ज्ञानमात्र छे; तेनी संवेदन व्यक्तिओ अत्यंत निर्मल छे.