वार्षिक लवाजम वीर सं. रप००
चार रूपिया श्रावण–भाद्र
वर्ष ३१ ई. स. 1974
अंक १० AUGUST
[साधकने पंचपरमेष्ठीनो कदी विरह नथी]
‘अहो, पंचपरमेष्ठी भगवंतो! मारा स्वसंवेदनज्ञानना बळे
आपना स्वरूपनो साक्षात्कार करीने हुं नमस्कार करुं छुं.’ प्रवचनसार
जेवा महान परमागमनो प्रारंभ करतां उत्कृष्ट मंगळरूपे सर्वे
पंचपरमेष्ठी भगवंतोने आत्मामां बोलावीने, एटले ज्ञानमां तेमना
स्वरूपनो साक्षात्कार करीने, आराधकभावनी झणझणाटी बोलावतुं
जे अपूर्व मंगलाचरण कर्युं छे–तेनां भावभीनां प्रवचनो आ अंकमां
आप वांचशो–त्यारे ख्याल आवशे के पंचपरमेष्ठी भगवंतो प्रत्ये
कहानगुरुना अंतरमां परमबहुमाननी केवी अद्भुत उर्मिओ उल्लसे
छे! वाह रे वाह! पंचमकाळेय पंचपरमेष्ठीनो विरह नथी.
पंचमकाळेय साधकना ज्ञानमां पंचपरमेष्ठीभगवंतो हाजराहजुर
विद्यमान छे. स्वसंवेदनज्ञानमां आवा साक्षात्कारपूर्वक पंचपरमेष्ठीने
नमस्कार करतां आत्मा पण तेमना ज मार्गे जाय छे.
[आ अंकना भावभीना संपादकीय लेख माटे जुओ पानुं ३४]